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स्वराज्य सिद्धि
( भ्रमति) भ्रमण करता है, परन्तु (एतद् दुःखस्यांतं न वेति )
इसं जन्म समूह के दुःख के नाश को तथा नाश के उपाय को
नहीं जानता (जनित्रातं च नस्मरति) और अतीत जन्म समूह
का भी स्मरण नहीं करता ।
अब आगे श्लोक से अग्रिम ग्रंथ की प्रवृत्ति के हेतु को दिख
लाते हैं
(श्रुति शिखरगिरः सूत्रभाष्याद्यश्च ) उपनिषदों के वाक्य
और शारीरिक सूत्र, और तद्भाष्यादिक ग्रंथ (तम्) उस जीव
को (स्वात्मराज्ये ) शुद्ध, निजात्म स्वरूप परम श्रानन्दमय
स्वराज्य में (अभिषेत्तुम्) तिलक करने के लिये अर्थात् स्थिर
करने के लिये (तात्पर्येण प्रवृत्ताः) तात्पर्य वृत्ति से प्रवृत्त हुए हैं,
साक्षात् नहीं । (सर्वानर्थ मूलप्रशमनविधिना ) सब अनर्थो के
मूल अज्ञान को निवृत्त करने वाले शुद्ध आत्माकार बोध को
उत्पन्न करके भाव यह है कि उपनिषत् ब्रह्म सूत्र तथा उनके भाष्य
श्रादिक ग्र'थ अज्ञान के निवर्तक शुद्ध आत्माकार ज्ञान को उत्पन्न
करने के हेतुसे ही प्रवृत्त हुए हैं।॥५४॥
इति श्रीमत् गंगाधरेन्द्र सरस्वती प्रणीत स्वाराज्य सिद्धौ
अध्यारोपाख्य प्रथम प्रकरणे सरलान्वय पद्य
काशिकाऽऽख्या भाषा टीका समाप्ता ।
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