पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९५६

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नवनवतितमोऽध्यायः ६३५ ॥१४६ सद्योजातं कुमारं तं दृष्ट्वाथ ममताऽब्रवीत् । गमिष्यामि गृहं स्वं वै भरद्वाजं बृहस्पते एवमुक्त्वा गतायां स पुत्रं त्यजति तत्क्षणात् । भरस्व वाढमित्युक्तो भरद्वाजस्ततोऽभवत् ॥१५० ॥१५२ ॥१५३ ॥ १५४ ( + मातापितृभ्यां संत्यक्तं दृष्टवाऽथ मरुतः शिशुम् | गृहीत्वैनं भरद्वाजं जग्सुस्ते कृपया ततः ॥१५१ तस्मिन्काले तु भरतो मरुद्भिः क्रतुभिः क्रमात् ।) काम्यनैमित्तिकैर्यंज्ञैर्यजते पुत्रलिप्सया यदा स यजमानो वै पुत्रान्नाऽऽसादयत्प्रभुः । यज्ञं ततो मरुत्सोमं पुत्रार्थे पुनराहरत् तेन ते मरुतस्तस्य मरुत्सोमेन तोषिताः | भारद्वाजं ततः पुत्रं बार्हस्पत्यं मनीषिणम् भरतस्तु भरद्वाजं पुत्रं प्राप्य तदाऽब्रवीत् । प्रजायां संहृतायां वै कृतार्थोऽहं त्वया विभो पूर्वं तु वितथं तस्य कृतं वै पुत्रजन्म हि । ततः स वितथो नाम भारद्वाजस्तथाऽभवत् तस्माद्दिव्यो भरद्वाजो ब्राह्मण्यात्क्षत्रियोऽभवत् । द्विमुख्यायननामा स स्मृतो द्विपितर तृक )स्तु वै ॥ ततोऽथ वितथे जाते भरतः स दिवं ययौ । वितथस्य तु दायादो भुवसन्युर्बभूव ह ॥१५५ ॥१५६ ॥१५८ पड़ा । इस सद्योजात कुमार को देखकर देवी ममता ने कहा, बृहस्पते ! मैं तो अपने निवास इस द्वाज ( जारज) पुत्र की पालना तुम्हे करनी होगी । ऐसा कहकर ममता के चले जाने पर उसी क्षण उस पुत्र को छोड़ दिया । 'भरद्वाजम्' (इस जारज शिशु की रक्षा करो) इस कथन के अनुसार वह शिशु भरद्वाज नाम से प्रसिद्ध हुआ |१४८०१४०। माता और पिता द्वारा छोड़े गये इस छोटे शिशु भरद्वाज को जब मरुद्गणो ने देखा, तो उन्हें बड़ी दया भाई, वे उसे अपने साथ उठा ले गये । ठीक उसी समय पुत्रप्राप्ति की अभिलाषा से सम्राट् भरत नैमित्तिक एवं काम्य विविध यज्ञों का अनुष्ठान कर रहे थे, सर्वेश्वर्यशाली सम्राट् भरत को जब उन यज्ञों से भी पुत्र प्राप्ति नहीं हुई तो उन्होंने पुत्रप्राप्ति की कामना से पुनः मरुद्गणों का एवं सोम का यज्ञ प्रारम्भ किया । १५१-१५३ | उस मरुत्सोमात्मक यज्ञ से मरुद्गण परम प्रसन्न हुए, और बृहस्पति के वीर्य से समुत्पन्न परम मनोषी उस भरद्वाज नामक पुत्र को उन्होंने भरत को दे दिया। भरद्वाज को पुत्र रूप में प्राप्त कर सम्राट् भरत विनतस्वर में बोले, 'विभो, इस अवसर पर जब कि मेरी सारी सन्ततियाँ मृत्यु को प्राप्त हो गयी थी, आपने पुत्रदान कर मुझे कृतार्थ कर दिया |१५४-१५५ सम्राट् भरत की पहली सन्ततियों का जन्म वितथ (असफल ) हो चुका था अतः भरद्वाज वितथ नाम से भी प्रसिद्धि हुए | सम्राट् भरत के पालन पोषण के कारण दिव्य विभूति सम्पन्न भरद्वाज ब्राह्मणत्व से क्षत्रियत्व को प्राप्त हुए । वे द्विमुख्यायन एवं द्विपितर नाम से भी प्रसिद्ध हुए। इस प्रकार उत्तराधिकारी रूप में वितथ को प्राप्त कर सम्राट् भरत स्वर्गंगामी हुए | वितथ के उत्तराधिकारी राजा भुवमन्यु हुए, उन भूवमन्यु के महाभूतों के समान महान् पराक्रम- + धनुश्चिह्नान्तमंत ग्रन्थो न घ. पुस्तके | को जा रही हूँ बृहस्पति ने भी