पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९५५

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वायुपुराणम् पत्न्यामासन्नगर्भायामसिजः संस्थितः किल । भ्रातुर्भार्या स दृष्ट्वाऽथ वृहस्पतिरुवाच ह || अलंकृत्यो तनुं स्वां तु मैथुनं देहि मे शुभे एवमुक्ताऽब्रवीदे [*नमन्तर्वत्नी ह्यहं विभो । गर्भः परिणतचायं ब्रह्म व्याहरते गिरा अमोघरेतास्त्वं चापि धर्मश्चैव विहितः । एवमुक्तोऽब्रवीदेनां] स्मयमानो वृहस्पतिः विनयो नोपदेष्टव्यस्त्या मम कथं चन | हर्षमाणः प्रसानां मैथुनायोपचक्रमे ततो बृहस्पति गर्भो हर्षमाणमुवाच ह । संनिविष्टो ह्यहं पूर्वमह तात वृहस्पते अमोघरेताश्च भवान्नावकाशोऽस्ति च द्वयोः । एवमुक्तः स गर्भेण कुपितः प्रत्युवाच ह यस्मान्मामीदृशे काले सर्वभूतेप्सिते सति । प्रतिषेधसि तत्तस्मात्तमो दोघं प्रवेक्ष्यसि पादाभ्यां तेन तच्छन्नं मातुर्द्वारं वृहस्पतेः । ततस्तुमंध्येऽनिवार्यः शिशुकोऽभवत् ६३४ ॥१४१ ॥१४२ ॥१४३ ॥१४४ ॥१४५ ॥१४६ ॥१४७ ॥१४८ संधि हुई) और इस प्रकार वे मरुतों द्वारा लाकर भरत को समर्पित किये गये । यह प्रसिद्ध बात है कि प्राप्तीन काल में ऋषिवर अशिज की पत्नी ममता जब आसन्नगर्भा हुई तब वे तपस्या में निरत हो गये । एकान्त में अपने भाई को भार्या को देखकर बृहस्पति ने कहा- 'मंगने ! अपने शरीर को विधिवत् अलंकागद से अलंकृत करके मुझे मैथुन का दान करो ११४०-१४१ वृहस्पति के इस प्रकार कहने पर देवी ममता ने कहा, समर्थ ! में सम्प्रति गर्भवती हूँ, यह गर्भ भी अब पूर्ण हो चुका है, ब्रह्म (वेद) का उच्चारण करता है, तुम्हारा वीर्य भो निष्फल हो जाने वाला नहीं है, और प्रकार व्यभिचार करने पर धर्म को विगर्हणा होगी। ममता के ऐसे कहने पर बृहस्पति हंसते हुए बोले, सुन्दरि ! मुझे तुम किमी प्रकार भी आचार की शिक्षा नहीं दे सकतीं, में सब कुछ जानता हूँ । ऐसा कहकर बड़े आनन्द के साथ वृहस्पति ने साहस पूर्वक ममता के साथ मैथुन करने का उपक्रम किया ११४२-१४४ रति कर्म में आनन्दविभोर वृहस्पति से गर्भस्थ शिशु ने कहा, सात ! वृहस्पते ! मैं यहाँ पहिले हो से सन्निविष्ट हूँ, आपका वीर्य कदापि निष्फल होने वाला नहीं है, इस संकीर्ण स्थली मे दो व्यक्तियों के निवास को सम्भावना नही है । गर्भस्थ शिशु के ऐसा कहने पर बृहस्पति को वडा क्रोध हो गया। वे वोले, सभी प्राणियों के अभीष्टतम इस सुन्दर अवसर पर तुम मुझे निषेध कर रहे हो, इस कारण तुम महान् घोर अन्धकार में प्रवेश करोगे ११४५-१४७॥ वृहस्पति के इस कथन के उपरान्त गर्भस्थ शिशु ने अपने दोनों पैरों से माता के योनिद्वार को आवृत कर दिया, किन्तु तिस पर भी वृहस्पति का वीर्य उसके दोनों पैरों के मध्यभाग से अनिवार्य होकर उदर के भीतर चला गया, और एक छोटे शिशु के रूप में उत्पन्न होकर बाहर निकल

  • धनुचिह्नान्तगंतप्रन्थः ख. पुस्तके न ।