पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९५४

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नवनवतित्तमोऽध्यायः ॥१३५ मेधातिथिः सुतस्तस्य यस्मात्काण्ठायना द्विजाः । इतिनानुयम ( ? ) स्याऽऽसीत्कन्या साऽजनयत्सुतान् ॥ त्रसोः सुदयितं पुत्रं मलिनं ब्रह्मवादिनम् । उपदातं ततो लेभे चतुरस्त्विति साऽऽत्मजान् ॥ १३२ सुष्मन्तमथ दुष्म ( प्य ) न्तं गवीरमनघं तथा । चक्रवर्ती ततो जज्ञे दौष्स (ध्य) तिर्नू पसत्तमः ॥ १३३ शकुन्तलायां भरतो यस्य नाम्ना तु भारतम् | दुष्म (ष्य )न्तं राजानं प्रति वागुवाचाशरीरिणो ॥१३४ माता भस्ना पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः | भर स्वपुत्रं दुष्यन्तं सत्यमाह शकुन्तला रेतोधाः पुत्रं नयति नरदेव यमक्षयात् | त्वं चास्य धाता गर्भस्य माऽवसंस्थाः शकुन्तलाम् ॥१३६ भरतस्तिसृषु स्त्रीषु नव पुत्रानजोजनत् । नाभ्यनन्दच्च तान्राजा नानुरूपान्ममेत्युत ततस्ता मातरः क्रुद्धाः पुत्रान्निन्युर्यमक्षयम् । ततस्तस्य नरेन्द्रस्य वितथं पुत्रजंन्स तंत् ततो मरुद्भिरानीय पुत्रस्तु स वृहस्पतेः । संक्रामितो भरद्वाजो मरुद्भिः क्रतुभिविभुः तत्रैवोदाहरन्तीदं भरद्वाजस्य धीमतः । जन्मसंक्रमणं चैव मरुद्भिर्भरताय वै ॥१३७ ॥१३८ ॥१३६ ॥१४० काण्ठायन नामक द्विजाति वर्ग की उत्पत्ति हुई । इस ( ? ) की एक कन्या थी, जिसने अनेक पुत्रों को उत्पन्न किया था। राजा रन्ति के प्रथम पुत्र त्रसु का परमप्रिय पुत्र मलिन था, जो बच्छा ब्रह्मवेत्ता था । उससे उपदानवों ने चारपुत्रों की प्राप्ति की, जिनके नाम थे, सुष्मन्त, दुष्यन्त, प्रवीर और अमघ । इनमें दुष्यन्त का पुत्र नृपतिवर्य भरत चक्रवर्ती सम्राट् हुआ, वह राजा भरत शकुन्तला नामक पत्नी में उत्पन्न हुआ था, उसी के नाम भारतवर्ष की प्रसिद्धि है |१३१-१३३३ । ऐसी प्रसिद्धि है कि राजा दुष्यन्त की गशरीरिणी वाणी (आकाश वाणी) हुई थी - 'दुष्यन्त ! पुत्र की माता उसकी केवल रक्षा करनेवाली है, पुत्र पिता का प्रतिनिधि है, पिता ही उसका सब कुछ है, जिससे उसकी उत्पत्ति होती है, वही सब कुछ है, तुम इस बालक के वही पिता हो । यह तुम्हारा ही पुत्र है, इसका पालन पोपण करो, शकुन्तला ने तुमसे सत्य बात कही है । नरदेव ! पिता अपने पुत्र की मृत्यु भय आदि आपत्तियों से रक्षा करता है, तुम्ही इस गर्भ का आधान करनेवाले हो, शकुन्तला का अपमान मत करो |१३४-१३६ सम्राट् भरत ने अपनी तीनों पत्नियों में नव पुत्रों को उत्पन्न किया था; किन्तु उसने अपने उन समस्त पुत्रों का यह कहकर के अभिनन्दन नहीं किया कि ये सब हमारी प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं है | १३७ | भरत की ऐसी बातों से पुत्रों की माताओं को बड़ा क्रोध हुआ और आवेश आकर उन सर्वोों को उन्होंने मार डाला, इस प्रकार राजाधिराज भरत को पुत्रोत्पत्ति निष्फल हो मई । तदनन्तर मरुतों ने बृहस्पति के पुत्र भरद्वाज को लाकर राजा भरत को दे दिया | परम सामर्थ्यशाली. भरद्वाज इस प्रकार यज्ञाधिपति मरुतों द्वारा सम्राट् भरत के वंश में संक्रमित हुए ११३८-१३६। इसी वार्ता के प्रसङ्ग में लोग परम बुद्धिशाली भरद्वाज के जन्म वृत्तान्त की चर्चा करते हैं कि इस प्रकार उनकी ( उत्पत्ति में