पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९३०

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अष्टनवतितमोऽध्यायः चुक्रोष भार्गवस्तेषामवलेपेन वै तदा । बोधिताऽपि मया यस्मान्न मां भजत दानवाः तस्मात्प्रनष्टसंज्ञा नै पराभवं गमिष्यथ । इति व्याहृत्य तात्काव्यो जगामाथ सथागतम् ज्ञात्वाऽसिशस्तानसुरान्काव्येन तु वृहस्पतिः । कृतार्थः स तदा हृष्टः स्वरूपं प्रत्यपद्यत || बुद्ध्वाऽसुरांस्तदा भ्रष्टान्कृतार्थोऽन्तरधीयत ततः प्रनष्टे तस्मिस्ते विभ्रान्ता दानवास्तदा | अहो धिग्वञ्चितास्तेन परस्परसथाब्रुवन् पृष्ठतो विमुखाश्चैव ताडिता वेधसा वयम् । दग्धाश्र्वोपयोगाच्च स्वे स्वे चार्थेषु मायया ततोऽसुराः परित्रस्ता देवेभ्यस्त्वरिता ययुः । प्रह्लादमग्रतः कृत्वा काव्यस्यानुगसं पुनः ततः काव्यं समासाद्य अभितस्थुरवाङ्मुखाः | तानागतान्पुनदृष्ट्वा काव्यो याज्यानुवाच ह मयाऽपि बोधिताः काले यतो मां नाभिनन्दथ । ततस्तेनावलेपेन गता यूयं पराभवम् प्रह्लादस्तमथोवाच मानं स्वं त्यज भार्गव | स्वान्याज्यान्भजमानांश्च भक्ताश्चैव विशेषत , ६०६ ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३६ ॥४० ॥४१ ॥४२ ॥४३ ॥४४ पास नहीं गये तन शुक्राचार्य उनके गर्व से परम कुपित हो उठे और बोले, 'अरे दानवो ! मेरे बहुत समझाने पर भी तुम लोग मेरे कहने में नही आ रहे हो, अतः तुम सब की चेतना मारी जायगी और निश्चय ही तुम्हारी पराजय होगी।" दैत्यों को ऐसा शाप देकर शुक्राचार्य जहाँ से जैसे आये थे चले गये । इघर शुक्राचार्य द्वारा उन असुरो को दूषित एवं शापग्रस्त जानकर बृहस्पति अपने उद्देश में सफल हो गये, उन्हें परम प्रसन्नता प्राप्त हुई, और वे अपने वास्तविक स्परूप में आ गये । जब उन्होंने समझ लिया कि असुरगण अपनी उद्देश्यसिद्धि में विफल हो चुके हैं, तब अपने को कृतार्थ समझकर अन्तर्हित हो गये । १३४-३८। इस प्रकार वृहस्पति के अन्तर्धान हो जाने पर दानवगण परम व्याकुल हो गये और आपस में कहने लगे कि 'हाय उसने हम लोगों को ठग लिया, हमें धिक्कार है | ३९ | हम लोग अपने कर्त्तव्य से विमुख हो गये, विधाता ने हमें पीछे से दण्ड दिया, अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए देवगुरु ने माया करके हमें छल लिया, इस तरह हम लोग नष्ट हो गये |४०। ऐसी वाते परस्पर करते हुए मसुरगण देवताओं से परम संत्रस्त होकर भाग खड़े हुए और प्रह्लाद को अगुआ बनाकर पुनः शुक्राचार्य के पीछे-पीछे दौड़े, और शुक्राचार्य के समीप जाकर नीचे मुखकर के खड़े हो गये । शुक्राचार्य ने अपने यजमानों को पुनः अपनी शरण में आया हुआ देखकर उनसे कहा, दैत्यो ! ठीक समय पर मैने तुम लोगों को समझाया बुझाया था; परन्तु तुम लोगों ने मेरी एक बात गी नही भानी, अतः उसी अभिमान के कारण तुम लोग पराजय को प्राप्त हो रहे हो ।४१-४३ शुक्राचार्य की ऐसी बाते सुनकर प्रह्लाद ने कहा, भृगुनन्दन ! आप अमर्ष छोड़ दें, अपने यजमान विशेषतया परमभक्त एवं अनुगामी असुरों को वचाइये। आपने हम लोगों को समय समय