पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९२९

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६०८ वायुपुराणम् ॥२६ ॥२७ ॥२८ ॥२६ ॥३० संप्रमूढाः स्थिताः सर्वे प्रापद्यन्त न किंचन । ततस्तेषु प्रमुढेषु काव्यस्तात्पुनरब्रवीत् आचार्यो वो ह्यहं काव्यो देवाचार्योऽयमङ्गिराः । अनुगच्छत गां सर्वे त्यजतैनं वृहस्पतिम् एवमुक्ताऽसुराः सर्वे तावुभौ समवेक्ष्य च । तदासुरा विशेषं तु न व्यजानंस्तयोर्द्वयोः बृहस्पतिरुवाचैतानसंभ्रान्तोऽयमङ्गिराः | काव्योऽहं वो गुरुदैत्या मद्रूपोऽयं बृहस्पतिः स मोहयति रूपेण मामकेनंष वोऽसुराः । श्रुत्वा तस्य ततस्ते वै संमन्त्र्यार्थवचोऽब्रवीत् अयं नो दश वर्षाणि सततं शास्ति वै प्रभुः । एष वै गुरुरस्माकमन्तरेप्सुरयं द्विजः ततस्ते दानवाः सर्वे प्रणिपत्याभिवाद्य च । वचनं जगृहुस्तस्य चिराभ्यासेन मोहिताः ऊचुस्तमसुराः सर्वे क्रुद्धाः संरक्तलोचनाः । अयं गुरुहितोऽस्माकं गच्छ त्वं नासि नो गुरुः भार्गवोऽङ्गिरसो ( ? ) दाऽयं भवत्वेणैव नो गुरुः | स्थिता वयं निदेशेऽस्य गच्छ त्वं साधु मा चिरम् ॥ एवमुक्त्वाऽसुराः सर्वे प्रापद्यन्त बृहस्पतिम् । यदा न प्रतिपद्यन्ते तेनोक्तं तन्महद्धितम् ॥३१ ॥३२ ॥३३ ॥३५ तक इसी प्रकार से अज्ञान में पड़े रहे, किसी भी निश्चय पर नहीं पहुँच सके | दस्यों के किकत्र्तव्यविमूढ - हो जाने पर शुक्राचार्य ने पुन: उनसे कहा, अरे दानवो ! तुम लोगों का आचार्य शुक्र में ही हूँ, यह अंगिरा का पुत्र देवताओं का गुरु वृहस्पति है, मेरी आज्ञा मानो, इसके कहने मे न आवो, इसको छोड़ो ।' शुक्राचार्य के इस प्रकार कहने पर सव दानवगण दोनों आचार्यों की ओर देखते ही रह गये, उन्हें उन दोनों में कोई विशेषता नही जान पड़ी | २३-२८॥ तदुपरान्त बिना किसी घबराहट के स्वाभाविक स्वर में बृहस्पति बोले, दैत्यो! तुम लोगों के गुरु शुक्राचार्य हमी है, यह मेरा स्वरूप धारण कर अंगिरा पुत्र बृहस्पति है । अरे असुरो ! मेरा, स्वरूप धारण कर यह तुम लोगों को मोहित कर रहा है ।' बृहस्पति को ऐसी बातें सुनकर वैत्यो ने आपस मे सम्मति करके निश्चय पूर्वक यह वचन कहा - 'परम ऐश्वर्यशाली यही हमें आज दस वर्षो से पढ़ाते आ रहे है अतः यही हमारे वास्तविक गुरु हैं, यह ब्राह्मण हम लोगो के भेद को जानने की इच्छा से यहाँ कृत्रिम वेश धारणकर आया हुआ है । इस प्रकार कह कर चिरकाल के अभ्यास से मोह को प्राप्त होने वाले उन समस्त असुरगणों ने पुनः बृहस्पति को हो शुक्राचार्य समझकर प्रणाम और अभिवादन किया गोर उन्ही की बातें अंगीकार कीं। इतना ही नहीं, शुक्राचार्य के ऊपर वे परमक्रुद्ध हो गये उनके नेत्र लाल हो आये, और वे आवेश मे भरकर बोले, हमारे कल्याण के चाहनेवाले आचार्य यही हैं, तुम हमारे आचार्य नही हो, यहाँ से चले जाओ | २९-३३। यह चाहे भृगु के पुत्र शुक्राचार्य हों या अंगिरा के पुत्र वृहस्पति हों, यही अब हमारे गुरु है, हम सब अब इन्ही के आदेश में स्थित हैं, तुम यहाँ से चले जाओ, देर मत करो इसी मे तुम्हारी भलाई है । ऐसा कहकर दैत्यगण वृहस्पति के समीप चले आये । इस प्रकार शुक्राचार्य की महान कल्याणकारिणी बातों को अवज्ञाकर जब दैत्यगण उनके .