पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९१८

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सप्तनवतितमोऽध्यायः तंद्बुद्ध्वा नीतिपूर्व तु राज्यं न्यस्तं तदाऽसुरः । तस्मिश्छिद्रं तदाऽमर्षाद्दवास्तान्समभिद्रवन् + ॥ निशितात्तायुधाः सर्वे बृहस्पतिपुरोगमा: ॥१२१ ॥१२२ ॥१२३ दृष्ट्वाऽसुरगणा देवान्प्रगृहीतायुधान्पुनः । उत्पेतुः सहसा सर्वे संत्रस्तास्ते ततोऽभवन् न्यस्तशस्त्रे जये दत्ते आचार्ये व्रतमास्थिते । संत्यज्य समयं देवास्ते सपत्नजिघांसवः अनाचार्यास्तु भद्रं वो विश्वस्तास्तपसि स्थिताः । चीरवत्काजिनधरा निष्क्रिया निष्परिग्रहाः ॥ १२४ रणे विजेतुं देवान्वं न शक्ष्यामः कथंचन | अशुद्धेन ( ? ) प्रपद्यामः शरणं काव्यमातरम् ज्ञापयामः कृत्स्नमिदं यावदागसनं गुरोः । विनिवृत्ते ततः काव्ये योत्स्यामो युधि तान्सुरान् एवमुक्त्वाऽसुरान्योन्यं शरणं काव्यमातरम् | प्रापद्यन्त ततो भीतास्तदा चैव तदाऽभयम् दत्तं तेषां तु भीतानां दैत्यानामभयार्थिनाम् । न भेतव्यं न भेतव्यं भयं त्यजत दानवाः मत्संनिधौ वर्ततां वो न भोर्भवितुमर्हति । भयाच्चाप्यभिपत्नांस्तान्दृष्ट्वा देवासुरांस्तदा + अडभाव आर्षः । ८६७ चाल समझकर, देवताओं को बड़ा अमर्ष हुआ और वे सब के सव तीक्ष्ण शस्त्रास्त्र धारण कर बृहस्पति को आगे कर दैत्यों पर टूट पड़े |११६-१२१ असुरगण इस प्रकार पुनर्वार देवताओं को शस्त्रास्त्र से सुसज्जित देखकर परम भयभीत हो उठे और तुरन्त भाग पड़े । उन सबों ने सोचा कि ऐसी स्थिति में जब कि हम लोगों ने रण मे हथियार डाल दिया है, अपने मुख से हो उनको विजय दे दी है, हमारे आचार्य व्रत के अनुष्ठान में तत्पर हैं, देवगण युद्ध की प्रथा तोड़कर अपने सौतेले भाइयों ( हम सर्वोों को) को मारने के लिए तत्पर हैं, इस समय हमारे आचार्य भी नहीं हैं, उनका कल्याण हो, हम लोग तो विश्वस्त होकर तपस्या में निरत हैं, इसीलिए चीर और वल्कल धारण किया है, कुछ कार्य आदि भी नहीं करते धरते, स्त्री एवं भृत्य आदि भी साथ में नहीं है । रण में किसी प्रकार भी देवताओं को हम जीत नहीं सकते - ऐसी संकट की स्थिति में शुक्राचार्य की माता की शरण में हम सब चलें। जब गुरुजी आ जायेंगे तो उनसे यह सब वृत्तान्त बतलायेगे, अपने आचार्य शुक्र के प्रतादि से निवृत्त होकर लोट आने पर इन देवताओं से हम फिर युद्ध करेंगे और तब इनसे पूछेगे |१२२-१२६ । असुरों ने इस प्रकार आपस में सम्मति कर शुक्राचार्य की माता की शरण ली, उस समय वे परम आतंकित हो रहे थे, शरण में जाने पर भय दूर हो गया |१२७ । अभय को प्रार्थना करने वाले परम भयभीत असुरों को इस प्रकार शरण में आया देख शुक्राचार्य की माता ने सान्त्वना देते हुए कहीं, दानवगण ! मत डरो, डरने की आवश्यकता नहीं है, भय छोड़ दीजिये । मेरे समीप मे रहते जाइये, फा०-११३ ॥१२५ ॥१२६ ॥१२७ ॥१२८ ॥१२६