पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९१७

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

८६६ वायुपुराणम् वयं तपश्चरिष्यामः संवृता वल्कलैर्वने । प्रह्लादस्य वचः श्रुत्वा सत्यव्याहरणं तु तत् ततो देवा निवृत्ता वै विज्वरा मुदिताश्च ह । न्यस्तशस्त्रेषु दैत्येषु स्वान्वै जग्मुर्यथाऽऽगतान् ततस्तानब्रवीत्काव्यः कंचित्कालमुपास्यतान् । निरुत्सुकेस्तपोयुक्तैः कालं कार्यार्थसाधकैः पितुर्ममाऽऽश्रमस्था वै सर्वे देवाः सवासवाः स संदिश्यासुरान्काव्यो महादेवं प्रपद्य च । प्रणम्यैनमुवाचाथ जगत्प्रभवमीश्वरम् मन्त्रानिच्छाम्यहं देव ये न सन्ति बृहस्पतौ । पराभवाय देवानामसुरेष्वभयावहान् एवमुक्तोऽब्रवोद्देवो मन्त्रानिच्छसि वै द्विज | व्रतं चर मयोद्दिष्टं ब्रह्मचारी समाहितः पूर्ण वर्षसहस्रं वै कुण्डधूममवाविछराः | यदि पास्यसि भद्रं ते मत्तो मन्त्रमवाप्स्यसि तथोक्तो देवदेवेन स शुक्रस्तु महातपाः | पादौ संस्पृश्य देवस्य वाढमित्यभ्यभाषत व्रतं चराम्यहं शेषं यथोद्दिष्टोऽस्मि वै प्रभो । ततो नियुक्तो देवेन कुण्डधारोऽस्य धूमकृत् असुराणां हितार्थाय तस्मिञ्शुक्रे गते तदा । मन्त्रार्थं तत्र वसति ब्रह्मचर्य महेश्वरे ॥१११ ॥११२ ॥११३ ॥११४ ॥११५ ॥११६ ॥११७ ॥११८ ॥११६ ॥१२० के इस प्रकार सत्य की तरह कहे गये वचन को सुनकर देवगणो ने युद्ध करना बन्द कर दिया, उन्हे परम प्रसन्नता एवं शान्ति मिली । दैत्यों के हथियार डाल देने पर देवगण जहाँ से जैसे आये थे, वहाँ से उसी प्रकार लौट गये ।१०७-११२। तदनन्तर शुक्राचार्य ने असुरों से कहा कि इसी प्रकार तुम लोग शान्तिपूर्वक कुछ समय बिताओ, उस अवधि तक बिना किसो उत्सुकता के तपस्या में लीन रहो जब तक कार्यसिद्धि नही हो जाती, क्योकि इन्द्र समेत समस्त सुर गण हमारे पिताजी के आश्रम विद्यमान हैं। इस प्रकार असुरों को सन्देश देकर शुक्राचार्य महादेव जी के पास आये और प्रणाम कर जगत् के उत्पन्न कन्र्ता महेश्वर से इस प्रकार निवेदन किया – देव ! मैं ऐसे मंत्रों को प्राप्त करना चाहता हूं, जो बृहस्पति को नहीं ज्ञात हैं, देवताओ को पराजित करने के लिए और असुरो को भय रहित करने के लिए यह हमारा प्रयास है।' शुक्राकार्य के इस प्रकार कहने पर महादेव जी बोले, द्विज ! जिन मंत्री को प्राप्त करने की तुम्हारी इच्छा है, उनके लिए मेरे आदेशानुसार सावधानता पूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत का एक सहस्र वर्ष तक पालन करो, और शिर को नीचे करके कुण्ड के धूम का पान करो, यदि ऐसा नियम पालन करोगे तो मुझसे वैसे मंत्रों की प्राप्ति होगी । ११३-११७॥ देवदेव महादेव के ऐसा कहने पर महान् तपस्वी शुक्राचार्य ने उनके चरणों का स्पर्श किया और कहा कि 'बहुत अच्छा, आपकी आज्ञा हमें स्वीकार है। प्रभो ! आप जैसा बतला रहे है, मै वैसा ही नियम पूर्वक व्रत पालन करूंगा । इस प्रकार महादेव जी की आज्ञा से शुक्राचार्य ने असुरों के कल्याणार्थं कुण्ड के धूम्र का पान करना प्रारम्भ किया। इधर शुक्र के दैत्यो के पास से जाकर मंत्र के लिये शिवजी के कथनानुसार ब्रह्मचर्य पालन का भेद देवताओं को लग गया। और दैत्यों के इस तपस्याचरण एवं राज्य त्याग को एक