पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९१३

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८६२ वायुपुराणम्' नामतस्तु समासेन शृणुध्वं तान्विवक्षतः । प्रथमो नारसिंहस्तु द्वितीयश्चापि वामनः तृतीयः स तु वाराहश्चतुर्थोऽमृतमन्थनः | सङ्क्रामः पञ्चमश्चैव सुघोरस्तारकामयः षष्ठो ह्याडोवकस्तेषां सप्तमस्त्रैपुरः स्मृतः । अन्धकारोऽप्टमस्तेषां ध्वजश्च नवमः स्मृतः वार्तंश्च दशमो ज्ञेयस्ततो हालाहलः स्मृतः । स्मृतो द्वादशमस्तेषां घोरकोलहलोऽपरः हिरण्यकशिपुत्यो नरसिंहेन सूचितः । वामनेन वलिर्वद्धस्त्रैलोक्याक्रमणे कृते हिरण्याक्षो हतो द्वन्द्वे प्रतिवादे तु दैवतैः । महावलो महासत्त्वः सङ्ग्रामेष्वपराजितः दंष्ट्रायां तु वराहेण समुद्राद्भूर्यदा कृता । प्रह्लादो निर्जितो युद्धे इन्द्रेणामृतमन्थने विरोचनस्तु प्राह्लादिनित्यमिन्द्रवधोद्यतः । इन्द्रेणैव स विक्रम्य निहतस्तारकामये भवावध्यतां प्राप्य विशेषास्त्रादिभिस्तु यः | सङ्ग्रामे निहतः पप्ठे शक्राविष्टेन विष्णुना अशक्नुवन्तो देवेषु पुरं गोप्तं त्रिदैवतम् । निहता दानवाः सर्वे त्रिपुरस्त्रयम्बकेण तु अष्टमे त्वसुराश्चैव राक्षसाश्चान्धकारकाः । जितदेवमनुष्यैस्तु पितृभिश्चैव संगतान् ॥७३ ॥७४ ॥७५ ॥७६ 111969 1165 LIVE 11८० ॥८१ ॥८२ ॥८३ तीसरा वाराह् का, चौथा अमृतमंथन का, पाँचवाँ परम दारुण तारकामय नामक संग्राम था, छठवीं युद्ध लाडोवक और सातवाँ त्रिपुर दहन का था । इन युद्धों में आठवां अन्धकार युद्ध एवं नवाँ ध्वज युद्ध कहा जाता है । दगवाँ युद्ध वार्त जानना चाहिये, ग्यारहवाँ हालाहल के नाम से विख्यात है, इसी प्रकार दारहवे युद्ध का नाम घोर कोलाहल है। प्रथम युद्ध मे दैत्यराज हिरण्यकशिपु नरसिंह के द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुआ । द्वितीय युद्ध में तीनों लोकों पर आक्रमण करने पर दैत्यराज बलि को भगवान् वामन ने बांधा। देवताओं के साथ संघर्ष उपस्थित होने पर उस युद्ध मे हिरण्याक्ष का निधन हुआ | वह महान् बलवान् महान् पराक्रमी तथा संग्राम में कभी पराजित होनेवाला नही था । ७१-७६। तीसरे अवतार में वाराह ने अपनी दाढ़ों से समुद्र में से निकाल कर पृथ्वी का उद्धार किया था | अमृतमंथन के अवसर पर देवराज इन्द्र के द्वारा दैत्यराज प्रह्लाद पराजित हुए थे। इससे प्रह्लाद का पुत्र विरोचन नित्य ही इन्द्र के संहार के लिए प्रयत्नशील रहता था । अन्त में इन्द्र ने परम पराक्रम दिखलाकर तारकामय संग्राम में उसका संहार किया था। उस दैत्य ने शंकर जी की अराधना कर अमरत्व का - विशेषतया अस्त्र शस्त्रादिकों से न मारे जाने का - वरदान प्राप्त किया था, अतः इन्द्र के शरीर में भाविष्ट होकर संग्रामभूमि में भगवान् विष्णु ने उसका संहार किया था। यह छठवाँ देवासुर संग्राम था |७६-८१| असुरों के पास एक परम सुरक्षित दुर्ग था, उसकी रक्षा में तत्पर दानवगण देवताओं की प्रतिष्ठा को सहन नहीं करते थे, त्र्यम्बक शिवजी ने उस त्रिपुर का विध्वंस कर समस्त दानवों का संहार किया | अष्टम देवासुर संग्राम में अंधकार स्वरूप असुरगण एवं राक्षसों के साथ देवताओ का संग्राम हुआ था; उममे देवताओं और मनुष्यों को पराजित करनेवाले पितरगण भी उनकी सहायता