पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९१२

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

सप्तनवतितमोऽध्यायः तस्य दिव्य तनुं विष्णोर्गदता मे निबोधत | युगधर्मे परावृत्ते काले च शिथिले प्रभुः कर्तुं॰ धर्मव्यवस्थानं जायते मानुषेष्विह | भृगोः शापनिमित्तेन देवासुरकृतेन च ऋषय ऊचु: कथं देवासुरकृते अध्याहारमवाप्नुयात् । एतद्वेदितुमिच्छामो वृत्तं दैवासुरं कथम् सूत उवाच देवासुरं यथा वृत्तं ब्रुवतस्तन्निबोधत | हिरण्यकशिपुर्दैत्यस्त्रैलोक्यं प्राक्प्रशासति बलिनाsधिष्ठितं राष्ट्र पुनर्लोकत्रये क्रमात् | सख्यमासीत्परं तेषां देवानामसुरैः सह युगं वै दशसंकीर्णमासीदव्याहतं जगत् । निदेशस्थायिनश्चैव तयोर्देवासुरा + ऽभवन् बलवान्वै विवादोऽयं संप्रवृत्तः सुदारुणः । देवासुराणां च तदा घोरक्षयकरो महान् तेषां दायनिमित्तं वै सङ्ग्रामा बहवोऽभवन् । वराहेऽस्मिन्दश द्वौ च षण्डामर्कान्तगाः स्मृताः ८६१ ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ ॥६६ ॥७० ॥७१ ॥७२ भगवान् के सप्त सप्तति (७७) अवतार कहे जाते हैं | युगान्त के अवसर पर देवताओं के कार्यों को पूर्ण करने के लिये वे उत्पन्न होते हैं । भगवान् को उस दिव्य देह का मैं वर्णन कर रहा हूँ, सुनिये । जब युगधर्म का ह्रास हो जाता है और उसके प्रभाव शिथिल हो जाते हैं, उस समय वे महामहिमामय भगवान् भृगु के शाप वश देवासुरों के संघर्ष को शान्ति के लिये एवं धर्म की व्यवस्था के लिए इस मर्त्यलोक में उत्पन्न होते हैं ।६३-६६॥ ऋषियों ने पूछा- सूत जी ! उस देवासुर संग्राम में भगवान् विष्णु ने किस प्रकार अवतार ग्रहण किया था और वह देवासुर संग्राम किस प्रकार संगठित हुआ था, इसे हम लोग जानना चाहते हैं ? १६७॥ सून बोले- ऋषिवृन्द ! जिस प्रकार वह देवासुर संग्राम घटित हुआ था, उसे में बतला रहा हूँ, सुनिये । प्राचीनकाल में दैत्यराज हिरण्यकशिपु त्रैलोक्य का शासक था। उसके उपरान्त पुनः दैत्यराज बलि के हाथ त्रैलोक्य का भार आया। उस समय देवताओं और असुरों में परम मित्रता थी । इस प्रकार दस युगों तक यह जगत् बिना किसी के उपद्रव रहा । उसकी आज्ञा में उस समय देवता और असुर दोनों ही थे ।६८-७०। तदनन्तर उन देवताओं और असुरों में घोर विनाशकारी दारुण विवाद उपस्थित हो गया, वाराहकल्प मे बारह युद्ध हुए जिनमें षण्ड गौर अमर्क सभी युद्धों में सम्मिलित कहे जाते हैं। उन युद्धों का नामपूर्वक वर्णन में संक्षेप में कर रहा हूँ, मुनिये। इनमें प्रथम युद्ध नरसिंह का था, दूसरा वामन का, + अत्र संघिरार्ष: ।