पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९११

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८६० वायुपुराणम् सर्वेन्द्रिया निविष्टास्तं स्वं स्वं योगं प्रचक्रिरे । पार्थिव देहमाहुस्तं प्राणात्मानं च मास्तम् छिद्राण्याकाशयोनोनि जलाश्रावं प्रवर्तते । तेजश्चक्षुण्विता ज्योत्स्ना तेषां यन्नामतः स्मृतम् ॥ सङ्ग्रामा विषयाश्चैव यस्य वीर्यात्प्रवर्तिताः * इत्येतान्पुरुषः सर्वान्सृजॅल्लोकान्सनातनः । नैधनेऽस्मिन्कथं लोके नरत्वं विष्णुरागतः एष नः संशयो धोमन्नेष वै विस्मयो महान् । कथं गतिर्गतिमतामापन्नो मानुष तनुम् श्रोतुमिच्छामहे विष्णोः कर्माणि च यथाक्रमम् । आश्चर्याणि परं विष्णुर्वेददेवश्च कथ्यते विष्णोरुत्पत्तिमाश्चर्य कथयस्व महामते । एतदाश्चर्यमाख्यानं कथ्यतां वै सुखावहम् प्रख्यात बलवीर्यस्य प्रादुर्भावा महात्मनः । कर्मणाऽऽश्चर्यभूतस्य विष्णोः सत्त्वमिहोच्यताम् सूत उवाच अहं वः कोर्तयिष्यामि प्रादुर्भावं महात्मनः । यथा स भगवाङजातो मानुषेषु महातपाः सप्तसप्ततयः प्रोक्ता भृगुशापेन मानुषे । जायते च युगान्तेषु देवकार्यार्थसिद्धये ॥५६ ॥५७ ॥५८ ॥५६ ॥६० ॥६१ ॥६२ ॥६३ ॥६४ उसमे निविष्ट होती है और अपनी-अपनो शक्तियाँ प्राप्त करती हैं | उस इन्द्रियग्राम (समूह) समन्वित प्रागात्मक पार्थिव शरीर की उत्पत्ति इस प्रकार पण्डित लोग बतलाते हैं। प्राण को वायु कहते हैं । शरीरस्थ छिद्र समूह आकाश से उत्पन्न होते है, उनसे जल का स्राव होता है। ज्योत्स्ना आँख को तजस्विनो ज्योति है, उन इन्द्रिय समूहों के जो नाम स्मरण किये जाते है । जिस परम शक्ति के प्रभाव से उन इन्द्रियों के संग्रामादि कठोर विषय प्रवर्तित होते है |५६-५७॥ इन समस्त लोकों की सृष्टि करता हुआ जो सनातन पुरुष प्रतिष्ठित है। वह इस मर्त्यलोक में किस लिए मानव शरीर धारण करता है ? परम बुद्धिमान सूत जो ! इस बात का हमें बड़ा ही सन्देह है और महान विस्मय तो यह है कि जो स्वयमेव सद्गति प्राप्त करनेवालों की गति है वह मनुष्य शरीर क्यों धारण करता है ? भगवान् विष्णु के इन आश्चर्यं मे डालने वाले कर्मों के विषय मे हम लोग क्रमानुसार सुनना चाहते है, वेद एवं देवगण उन भगवान विष्णु को परम आश्चर्यमय बतलाते है । हे महामते ! भगवान् विष्णु की उस आश्चर्यमयी सम्भूति को आप बतलाइये । उनका यह आख्यान आश्चर्यों से भरा हुआ एवं कहनेवालों को परम सुख देनेवाला है। उनके वल एवं पराक्रम को विशेष ख्याति है । वे परम ऐश्वयंशाली एवं महान् है । उनके कर्म आश्चर्य से भरे हैं, उनके पराक्रम के सम्बन्ध में भी हम लोगों को बतलाइये ।५८-६२॥ सूत बोले- ऋषिवृन्द ! मैं उन महात्मा भगवान् विष्णु के प्रादुर्भाव का वर्णन अर्थात् जिस प्रकार वे परम तपोनिष्ठ भगवान् मानव योनि मे अवतीर्ण हुए उसे आप लोगो से कह रहा हूँ | भृगु के शाप वश

  • अत्र स्थल ऋषय ऊचुरित्यधिकं ख. पुस्तके |