पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९१०

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संप्तनवतितमोऽध्यायः शुक्रांद्गर्भः समभवद्रसमूलेन कर्मणा । तथापि प्रथमं चाऽऽपस्ताः सौम्यराशिरुच्यते ÷ गर्भोष्मसंभवो ज्ञेयो द्वितीयो राशिरुच्यते । शुक्रं सोमात्मकं विद्यादार्तवं पावकात्मकम् भावौ रसानुगावेतौ वीर्ये च शशिपावको । कफवर्गेऽभवच्छुक्क्रं पित्तवर्गे च शोणितम् कफस्य हृदयं स्थानं नाभ्यां पित्तं प्रतिष्ठितम् | देहस्य मध्ये हृदयं स्थानं तु मनसः स्मृतम् नाभीकोष्ठान्तरं यत्तु तत्र देवो हुताशनः । मनः प्रजापतिज्ञेयः कफः सोमो विभाव्यते पित्तमग्निः स्मृतावेतावग्नीषोमात्मकं जगत् । एवं प्रवर्तितो गर्भो वर्ततेऽम्वुदसंनिभः वायुः प्रवेशनं चक्रे सङ्गतः परमात्मना । स पञ्चधा शरीरस्थो विद्यते वर्धयेत्पुनः प्राणापानौ समानश्च उदानो व्यान एव च । प्राणोऽस्य परमात्मानं वर्धयन्परिवर्तते अपानः पश्चिसं कायसुदानोर्ध्वशरीरगः | व्यानो व्यानस्यते येन समानः सर्वसंधिषु भूतावाप्तिस्ततस्तस्य जायते x न्द्रियगोचरा | पृथिवी वायुराकाशसापो ज्योतिश्च पञ्चमस् ॥४६ ॥४७ ॥४८ ॥४६ ॥५० ॥५१ ॥५२ ॥५३ ॥५४ ॥५५ मूलक कर्म द्वारा गर्भ की उत्पत्ति होती है । इस गर्भ क्रिया में रस अथवा जल को सौम्यराशि तथा गर्भगत उष्णता से उत्पन्न होनेवाले ऋतुशोणित को द्वितीय राशि जानना चाहिये । वीर्य को सोमात्मक और आर्तव को पावकात्मक जानना चाहिये । ये दोनो भाव रस के अनुगत होते हैं, शुक्र व शोणितात्मक आर्तव को चन्द्रमा और सूर्य कहा जाता है | कफवर्ग में शुक्र और पित्तवर्ग मे शोणित की स्थिति रहती है । कफ का स्थान हृदय हैं, पित्त नाभि में स्थित रहता है। शरीर के मध्य भाग में अवस्थित हृदय मन का स्थान कहा जाता है । नाभिकोष्ठ के भीतरी प्रान्त में हुताशन देव का निवास है। मन को प्रजापति जानना चाहिये, कफ को चन्द्रमा और पित्त को अग्नि कहा जाता है - अग्नि और चन्द्रमा से समस्त चराचर जगत् व्याप्त है । इस प्रकार से मेघ के आकार में प्रवर्तित गर्भ स्थित रहता है |४६-५१ | वायु इस गर्भ में प्रविष्ट होकर परमात्मसत्ता से संगत होती है, और पाँच भागों में विभक्त होकर शरीर में स्थित रहते हुए गर्भ की वृद्धि करती है । प्राण, अपान, समान उदान और व्यान-ये पाँच वायु हैं। इनमें से प्राणवायु परमात्मसत्ता की वृद्धि करते हुए परिवर्तित होता है । अपान वायु शरीर के निम्नभाग में और उदान वायु शरीर के उर्ध्व भाग में विद्यमान रहती है | व्यानं वायु सर्वशरीर व्यापी एवं समान - शरीर की समस्त सन्धियों में समानभाव से गतिशील रहनेवाली । इस प्रकार वृद्धि को प्राप्त हुए गर्भ को पंच महाभूतों की प्राप्ति होती है, जो इन्द्रियगोचर होता है । पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और ज्योति (अग्नि) ये पाँच महाभूत हैं १५२-५५० गर्भ की उस अवस्था मे इन्द्रियाँ

  • एतदर्धस्थाने तत्रापां प्रथमा चापः स सौम्यो राशिरुच्यत इति घं पुस्तके | ख. ग. ङ. पुस्तके वेतत्सदृश

एव पाठा वर्तन्ते तेऽस्पष्टा इति नोल्लिखिताः । : अत्र संधिराषः | X अत्र संधिरार्षः । फा० - ११२