पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९०९

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दंप वायुपुराणम् यो गतिर्धमंयुक्तानामगतिः पापकर्मणाम् । चातुर्वर्ण्यस्य प्रभवश्चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता चातुर्विद्यस्य यो वेत्ता चातुराश्रम्यसंश्रयः । दिगन्तरं नभो भूमिरापो वायुविभावसुः चन्द्रसूर्यद्वयं ज्योतिर्युगेशः क्षणदाचरः | यः परः श्रूयते देवो यः परं श्रूयते तपः यः परं तपसः प्राहुर्यः परंपरमात्मवान् । आदित्यादिस्तु यो देवो यश्च दैत्यान्तको विभुः युगान्तेष्वन्तको यश्च यश्च लोकान्तकान्तकः । सेतुर्यो लोकसेतूनां मेध्यो यो मेध्यकर्मणाम् वेद्यो यो वेदविदुषां प्रभुर्यः प्रभवात्मनाम् । सोमभूतस्तु भूतानामग्निभूतोऽग्निवर्चसाम् मनुष्याणां मनोभूतस्तपस्वी च तपस्विनाम् । विनयो नयतृप्तानां तेजस्तेजस्विनामपि विग्रहो विग्रहाणां यो गतिर्गतिमतामपि । आकाशप्रभवो वायुर्वायुप्राणो हुताशनः देवा हुताशनप्राणाः प्राणोऽग्नेर्मधुसूदनः । रसाच्छोणितसंभूतिः शोणिताम्मांसमुच्यते मांसात्तु मेदसो जन्म मेदसोऽस्थि निरूप्यते । अस्थ्नो मज्जा समभवन्मज्जातः शुक्रसंभवः ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३ ॥४० ॥४१ ॥४२ ॥४३ ॥४४ ॥४५ विधाओं के जाननेवाले, चारो आश्रमो के आश्रयभूत, एवं दिक् दिगन्तर, आकाश, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, अन्यान्य ज्योतिष्पिण्ड, युगपति, निशाचर - सब के स्वरूप हैं, जो देव सब से श्रेष्ठ एवं परम तपःस्वरूप सुने जाते हैं, जो तपस्या से भी श्रेष्ठ सुने जाते हैं, जो परम परमात्मविशिष्ट कहे जाते हैं, जो देव आदित्यों में आदि हैं. और जो महामहिमामय दैत्यों के विनाशकारी हैं |३०-३६| जो प्रभु युगान्त के अवसरों पर अन्तक स्वरूप हो जाते है, जो लोकों के विनाश करनेवाले यमराज के भी अन्तक हैं, जो लोकसेतु समूह के भी सेतु स्वरूप है, जो समस्त पवित्र कर्म समूहों से भी अधिक पवित्र है, वेद के जानने वालों के लिये जो एक मात्र ज्ञातव्य हैं, परम ऐश्वर्यशालियों के भी जो प्रभु हैं, भूतगणों के मध्य मे जो सोम स्वरूप हैं, अग्नि के समान तेजस्वियों मे जो अग्निस्वरूप है। मनुष्यो के जो मन स्वरूप है, तपस्या मे निरत रहनेवाले तपस्वियों के तपःस्वरूप है, नीतिनिपुण प्राणियों के जो विनय स्वरूप हैं, तेजस्वियों के तेज: स्वरूप हैं, विग्रह (शरीर) धारण करनेवालों के जो विग्रहस्वरूप है, गतिमान् प्राणियों के जो गतिरूप है । वायु का उत्पत्ति स्थान आकाश है, अग्नि का प्राणस्वरूप वायु है, देवगणों का प्राणस्वरूप अग्नि है, और अ के प्राणस्वरूप मधुसूदन भगवान् विष्णु हैं । अर्थात् जगत् के सेब के प्राणस्वरूप भगवान् मधुसूदन है । रस से रक्त की उत्पत्ति होती है, रक्त से माँस की उत्पत्ति कही जाती है, मांस से मेदा की उत्पत्ति होती है, मेदा से हड्डियों का निर्माण होता है, हड्डियों से मज्जा बनती है और मज्जा से वीर्य बनता है |४०-४५। शुक्र से काम