पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९०८

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सप्तनवतितमोऽध्यायः ॥२५ ॥२६ ॥२७ गार्हपत्येन विधिना अन्वाहार्येण कर्मणा | अग्निमाहवनीयं च वेदि चैव कुशनुचम् प्रोक्षणीयं स्रुवं चैत्रं अवभृथ्यं तथैव च । अथ त्रोनिह यश्चक्रे हव्यभागप्रदान्मखे हव्यादांश्च सुरांश्चके काव्यादांश्च पित नपि | भोगार्थ यज्ञविधिना यो यज्ञो यज्ञकर्मणि यूपान्समित्स्रुचं सोमं पवित्रं परिधीनपि । यज्ञियानि च द्रव्याणि यज्ञियांश्च तथाऽनलान् सदस्यान्यजमानांश्च अश्वमेधात्तूत्तमान् । विबभ्राज पुरा यश्च पारमेष्ठचेन कर्मणा युगानुरूपं यः कृत्वा त्रोँल्लोकान्हि यथाक्रमम् । क्षणा निमेषाः काष्ठाश्च कलास्त्रैकालमेव च ॥३० महूर्तास्तिथ्यो मासा दिनसंवत्सरं तथा । ऋतवः कालयोगाश्च प्रमाणं त्रिविधं नृषु ॥२८ ॥२६ ॥३१ ॥३२ आयुः क्षेत्राण्युपचयं लक्षणं रूपसौष्ठवस् । मेधा वित्तं च शौर्य च शास्त्रस्यैव च पारणम् त्रयो वर्णास्त्रयो लोकास्त्रैविद्यं पावफास्त्रयः । त्रैकाल्यं त्रोणि कर्माणि तित्रो मायास्त्रयो गुणाः ||३३ सृष्टा लोकाः सुराश्चैव येनाऽऽनन्त्येन कर्मणा | सर्वभूतगणाः सृष्टाः सर्वभूतगणात्मना नृणासिन्द्रियपूर्वेण योगेन रमते च यः । गतागतानां यो नेता सर्वत्र विविधेश्वरः ॥३४ ॥३५ ८५७ के आधिपत्य पर पुरुहूत इन्द्र को प्रतिष्ठित करते हैं |२३-२४ | जो आदिदेव गार्हपत्य विधि से, अन्वाहार्य कर्म से आहवनीय अग्नि को, वेदी को, कुशाओं को, स्रुच को प्रोक्षणीपात्र को, स्रुवा को, अवभृथ स्नान के लिये मँगाई गई समस्त वस्तुओं को बनानेवाले है, जो यज्ञादि कार्यो मे हव्य भाग देने के लिये तीन अधिकारियों को व्यवस्था करते हैं, जिन्होने देवताओं को यज्ञभोक्ता, एवं पितरों को श्राद्धभोक्ता बनाया, जो स्वयं यज्ञादि शुभकार्यो में विधि के अनुसार भोग के लिये यज्ञ रूप में प्रतिष्ठित होते है, जिन्होंने पूर्वकाल में अपने परम स्वरूप में अवस्थित रह कर भी यज्ञस्तम्भों, समिधा, स्रुच, सोमरस, पवित्र, परिधि, यज्ञोपयोगी अन्यान्य सामग्रियों, यज्ञाग्नि, यज्ञ कार्य के सदस्य, यजमान, अश्वमेधादि प्रमुख उत्तम यज्ञों को सुशोभित किया |२५-२६| जिसने युग के अनुरूप तीनों लोकों की क्रमानुसार रचनाकर क्षण, निमेष, काष्ठा, कला, भूत, भविष्यत्, वर्तमान – ये तीन काल, मुहूर्त, तिथि, मास, संवत्सर, ऋतु, काल, योग मनुष्यों में प्रचलित तीन प्रकार के प्रमाण आयु, क्षेत्र, वृद्धि, लक्षण, रूप, सौन्दर्य, बुद्धि, वित्त, शूरता, शास्त्रों के पाठ, तीन वर्ण, तीनों लोक, तीनो विधाएँ तीनों अग्नि तीनों काल, तीनो कर्म, तीनों माया, तीनों गुण, समस्त लोक एवं समस्त सुरगणों को अपने अनन्त कर्मों द्वारा रचना की है, जिसने सर्वजीवसमूहों में व्याप्त रह कर सब जीवों की सृष्टि की है, जो मानव की इन्द्रियो मे योग द्वारा रमण करता है, जो गत आगत -- सव के नेता है, जो सर्वत्र विराजमान एवं जगत् मे विस्तृत विविध विधानों के अधीश्वर है, जो धर्मात्मा लोगों की एक मात्र गति है, जो पापात्माओ के लिये के लिये दुर्गति स्वरूप हैं, जो चारों वर्गों के उत्पत्तिकर्ता एवं चारों वर्गों के रक्षक हैं; जो चारों प्रकार की के