पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८८८

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षण्णवतितमोऽध्यायः कन्यां च वासुदेवाय स्वसारं शोलसंसताम् । अक्रूरः प्रददौ श्रीमान्प्रीत्यर्थं यदुपुंगवः अथ विज्ञाय योगेन कृष्णो बभ्रुगतं मणिम् । सभामध्ये तदा प्राह तमक्रूरं जनार्दनः यच्च रत्नं मणिवरं तव हस्तगतं प्रभो । तत्प्रयच्छस्व मानार्ह विमतिमंत्र मा कृथाः षष्टिवर्षगते काले यगोषोऽभूत्तदा मम | सुसंरूढः सकृत्प्राप्तस्तकालाश्रित्य यो महान् ( ? ) ततः कृष्णस्य वचनात्सर्वसात्वतसंसदि । प्रददौ तं मणि बभ्रुरक्लेशेन महामतिः तत आर्जवसंप्राप्त भ्रुहस्तारिंदमः | ददौ प्रहृष्टमनसा तं मणि बभ्रुवे पुनः स कृष्णहस्तात्संप्राप्य मणिरत्नं स्यमन्तकम् | आबध्य गान्दिनीपुत्रो विरराजांशुमानिव इमां मिथ्याभिशस्ति यो विशुद्धामपि चोत्तमास | वेद मिथ्याभिशस्ति स न व्रजेच्च कथंचन अनमित्राछिनर्जज्ञे कनिष्ठाद्वृष्णिनन्दनात् । सत्यवाक्सत्यसंपन्नः सत्यकस्तस्य चाऽऽत्मजः सात्यकिर्युयुधानश्च तस्य भूतिः सुतोऽभवत् । भूतेर्युगंधरः पुत्र इति मौत्याः प्रकीर्तिताः ८६७ ॥६१ ॥६२ ॥६३ ॥६४ ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ 1188 ॥१०० विपुल वृष्टि की, यहाँ तक कि समुद्र में भी विपुल वृष्टि हुई । यदुवंशियों में श्रेष्ठ श्रीमान् अक्रूर ने प्रसन्न करने के लिये अपनी सर्वगुणसम्पन्न शीलवती भगिनी को वासुदेव कृष्ण को समर्पित किया | भगवान वासुदेव ने योगबल से अक्रूर के पास स्यमन्तक मणि का होना जान लिया और एक बार भरी सभा में उन्होंने अक्रूर से कहा, 'सम्माननीय ! सर्वसमर्थ ! अक्रूर जी ! आपके पास जो सर्वश्रेष्ठ सुन्दर स्यमन्तक मणि है, उसे हमें दे दीजिये, इसमें इनकार न कीजिये |८६-६३। इसके लिये साठ वर्ष से हमारा क्रोध आपके ऊपर पैदा हुआ है, उस महान् क्रोध को प्रकाशित करने का अवसर बुझे एक बार मिला है । आज समय पड़ने पर मैं उस मणि को याचना कर अपने उस पुराने क्रोध को शान्त करना चाहता हूँ | भगवान कृष्ण के इस वचन को सुनकर परम बुद्धिमान् अक्रूर ने सात्वत वंशियो को भरी सभा में बिना किसी क्लेश के उस स्यमन्तकमणि को भगवान् वासुदेव को समर्पित किया । शत्रुओं को वश मे करनेवाले भगवान् वासुदेव इस प्रकार सरलतापूर्वक अक्रूर के हाथ से उस महामणि के प्राप्त हो जाने पर पुनः प्रसन्न मन से अक्रूर को वह मणि वापस कर दिया। भगवान् कृष्ण के हाथ से उस मणिवर स्यमन्तक को प्राप्तकर गान्दिनीनन्दन अक्रूर ने उसे यथा स्थान अलंकृत कर लिया और उस समय अंशुमान् की तरह वे शुशोभित हुए।१४-१७॥ भगवान् के उपर लगाई गई इस मिथ्या अपवाद मूलक चार्ता को, जो वास्तव में विशुद्धि और उत्तम शिक्षा देने- वाली है, जो व्यक्ति जानता है, वह कभी ऐसे मिथ्या अपवाद का भाजन नही हो सकता। कनिष्ठ वृष्णिनन्दन अनमित्र से शिनि को उत्पत्ति हुई, उनके पुत्र परम सत्यवादी सत्याचरण-परायण सत्यक हुए। सत्यक के पुत्र सात्यकि हुए जिनका दूसरा नाम युयुधान भी था। सात्यकि के पुत्र भूति हुए। भूति के पुत्र युगन्धर हुए। इन सभी भौत्य के नाम से विख्यात वृष्णिवंशियों का विवरण कह चुका | माद्री के पुत्र युधाजित् के पृश्नि नाम