पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८८७

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८६६ वायुपुराणम् दोक्षामयं सकवचं रक्षार्थं प्रविवेश ह | स्यमन्तककृते राजा गाधिपुत्रो महायशाः अर्थात्नानि चाग्याणि द्रव्याणि विविधानि च । पष्टिवर्पगते काले यज्ञेषु विन्ययोजयत् अक्रूरयज्ञा इत्येते ख्यातास्तस्य महात्मनः । वन्नदक्षिणाः सर्वे सर्वकामप्रदायिनः अथ दुर्योधनो राजा गत्वाऽय मिथिलां प्रभुः । गदाशिक्षां ततो दिव्यां वलभद्रादवाप्तवान् प्रसाद्य तु ततो रामो वृष्ण्यन्धकमहारथैः । आनीतो द्वारकामेव कृष्णेन च महात्मना अक्रूरस्त्वन्धकैः सार्धमुपायात्पुरुषर्षभः । युद्धे हत्वा तु शत्रुघ्नं सह बन्धुमता बलो स्वफलकतनयायां तु नरायां नरसत्तमौ । भङ्गकारस्य तनयौ विश्रुतो मुमहावतौ जज्ञातेऽन्धकमुख्यस्य शत्रुघ्नो वन्धुमांश्च तो | वधार्य भङ्गकारस्य कृष्णो न प्रोतिमान्भवेत् ज्ञातिभेदभयाद्भोतस्तमुपेक्षितवांस्तथा । अपयाते तथाक्रूरे नावपंत्पाकशासनः अनावृष्ट्या हतं राष्ट्रमभवत्तद्वधोद्यतम् । ततः प्रासादयामानुरक्रूरं कुकुरान्धकाः पुनर्द्वारवतों प्राप्ते तदा दानपतौ तथा प्रववर्ष सहस्राक्षः कुक्षौ जलनिर्धस्ततः ||५० ॥८१ ॥८२ ॥८३ ॥८४ ॥८५ ॥८६ ॥८७ lleg ॥८६ 11E0 सम्मान किया । ७६-७८। इधर इसी अवधि में बुद्धिमानो में श्रेष्ठ प्रभु ने अनेक प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान बिना किसी विघ्न बाधा के सम्पन्न किया । महायस्वी गावपुत्र ने उसो स्यगन्तक के लिये अपनी रक्षा के हेतु एक दीक्षामय कवच भी पहन रखा था। इस साठ वर्ष की अवधि में उसने अपने उन यशों में विविध प्रकार के बहुमूल्य रत्न एवं द्रव्यादि लगाये थे । उस परम बुद्धिमान् महात्मा के ये यज्ञ असूर यज्ञ के नाम से विख्यात हो चले थे । उनमें बहुत परिणाम में अन्न एवं दक्षिणा रूप में द्रव्य व्यय किया गया था, और वे सभो मनोरथों को पूर्ण करनेवाले थे |७६-८२। उसी अवधि मे प्रभूवयं कुरुपति दुर्योधन ने मिथिलापुरी मे जाकर बलराम गदा चलाने की दिव्य शिक्षा ग्रहण की थी। इस प्रकार बहुत दिन बीत जाने पर भगवान् कृष्ण के साथ वृष्णि और अंघकों ने बड़ी अनुनय विनय कर बलराम को प्रसन्न किया और उन्हें द्वारकापुरी चलने के लिये वाध्य किया । बलवान् पुरुष में श्रेष्ठ अकूर युद्ध में वन्धुमान के साथ शत्रुघ्न का संहार कर लंगकों के साथ द्वारका पुरी से बाहर चले गये । ये दोनो महायलवान् पुत्र भङ्गकार के थे, स्वफल्क की पुत्री नरा में इन दोनो प्रख्यात पुरुषरत्नो का जन्म हुआ था । अंधकों के स्वामी भङ्गकार के ये दोनो शत्रुघ्न और चन्चुमान नामक पुत्र परम वलवान् थे । भङ्गकार को मृत्यु के कारण भगवान् कृष्ण अकूर से प्रसन्न नही रहते थे । जाति भेद के भय से तथा समाज उपेक्षित होकर अक्रूर द्वारिकापुरी के बाहर चले गये थे। उनके चले जाने पर इन्द्र ने वृष्टि करना हो बन्द कर दिया |८३-८८ अनावृष्टि के कारण समस्त राष्ट्र का विनाश उपस्थित हो गया, लोग परस्पर मारने काटने को उद्यत हो गये । इस दुर्घटना से प्रभावित होकर कुकुर और अंथको ने जाकर अक्रूर को प्रसन्न किया । दानशिरोमणि अकूर जब लोटकर द्वारकापुरी में आये तब सहस्रनेत्र इन्द्र ने