पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८८६

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षण्णवतितमोऽध्यायः ॥७० ॥७१ ॥७२ ॥७३ ॥७४ विज्ञातहृदया नाम शतयोजनगामिनी | भोजस्य वडवा दिव्या यया कृष्णमयोधयत् प्रवृद्धवेगा वडवा त्वध्वनां शतयोजनम् | दृष्ट्वा रथस्य तां वृद्धि शतधन्वानमर्हयत् ततस्तस्या हयायास्तु श्रमात्स्वेदाच्च वै द्विजाः । खमुत्पेतुरथ प्राणाः कृष्णो राममथाब्रवीत् तिष्ठस्वेह महाबाहो दृष्टदोषा मया हया | पद्भ्यां गत्वा हरिष्यामि मणिरत्नं स्यमन्तकम् पद्भ्यामेव ततो गत्वा शतधन्वानसच्युतः । सिथिलाधिपति तं वै जघान परमास्त्रवित् स्यमन्तकं न चापश्यद्धत्वा भोजं महाबलम् | निवृत्तं चाब्रवीत्कृष्णं रत्नं देहीति लागली नास्तीति कृष्णचोवाच ततो रामो रुषाऽन्वितः । धिक्शब्दमसकृत्पूर्वं प्रत्युवाच जनार्दनम् भ्रातृत्वान्मर्षयाम्येष स्वस्ति तेऽस्तु व्रजाम्यहम् | कृत्यं न मे द्वारकया न त्वया न च वृष्णिभिः ॥७७ प्रतिवेश ततो रामो मिथिलामरिमर्दनः । सर्वकामै रुपहृतैमैथिलेनैव पूजितः ॥७५ ॥७६ 1 ॥७८ ॥७६ एतस्मिन्नेव काले तु बभ्रुर्मतिमतां वरः । नानारूपान्क्रतून्सर्वानाजहार निरर्गलान् ८६५ और वहीं से भाग निकलने की बात सोचने लगा । शतधन्वा की विज्ञात हृदया नाम की घोड़ी थी, जिसके द्वारा विचार करते ही करते सो योजन दूर पहुँच गया । उसी दिव्य गुणसम्पन्न घोड़ी पर चढ़ कर वह भगवान् कृष्ण से युद्ध कर रहा था । उस तीव्रवेगशालिनी घोड़ी के वेग को सौ योजन देखकर, और उस पर घढ़कर शतधन्वा को भागते देखकर कृष्ण ने पीछा किया ।६७-७१। द्विजवृन्द | भगवान् कृष्ण के पीछा करने के पर अति परिश्रम से प्रचुर परिमाण में पसीना निकलने के कारण शतधन्वा की घोड़ी के जब प्राण निकल गये तब उन्होने बलगम से कहा, हे महाबाहु ! आप यहीं रहिये, मै देख रहा हूँ, वह घोड़ी तो मर गई है, अतः पैदल हो जाकर स्यमन्तक मणि को मै शतधन्वा से छीन लाऊँगा | ऐसा कहकर परम - अस्त्रवेत्ता भगवान् अच्युत ने पैदल हो जाकर मिथिलाधिपति-शतधन्वा का संहार किया, किन्तु उस महा- बलशाली भोजवंशीय शतधन्वा के मार डालने पर भी स्यमन्तक को उसके पास नहीं देखा । वहां से शतधन्वा को मारकर जब भगवान् कृष्ण लौटे तब हलधर बलराम ने उनसे स्यमन्तक मणि माँगा ।७२-७५॥ कृष्ण ने कहा कि मणि तो वहीं पर नहीं मिला। उनकी इस बात से बलराम बहुत क्रुद्ध हुए और अनेक बार जर्नादन को धिक्कारा | बलराम ने आगे कहा, भाई के नाते तुम्हें मैं क्षमा प्रदान कर रहा हूँ, जाओ तुम्हारा कल्याण हो, मैं तो जा रहा हूँ मेरा अब द्वारका से कोई सम्बन्ध नहीं हैं, और न तुमसे तथा वृष्णिवशियों से हो कोई प्रयोजन है । शत्रुओं के विनाश करनेवाले बलराम जी ने कृष्ण से ऐसी बातें कर मिथिलापुरी में प्रवेश किया, वहाँ पर मिथिलावासियों ने उन्हें सभी प्रकार के उपहार अर्पित किये और बड़ा फा•-१०६