पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८८५

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८६४ वायुपुराणम् ॥५६ ॥६० ॥६१ अरस्तु तदा रत्नमादाप स नरर्षभः | समयं कारणं चके वोध्यो नान्यस्त्वयेत्युत वयमभ्युपपत्स्यामः कृष्णेन त्वं प्रर्धापितः । मम च द्वारका सर्वा वशे तिष्ठत्यसंशयम् हते पितरि दुःखार्ता सत्यभामा यशस्विनी | प्रययौ रथमारुह्य नगरं वारणावतम् सत्यभामा तु तद्द्वृत्तं भोजस्य शतधन्वनः । भर्तुनिवेद्य दुःखार्ता पार्श्वस्याश्रूण्यवर्तयत् पाण्डवानां तु दग्धानां हरिः कृत्वोदकक्रियाम् | तुल्यार्थे चैव भ्रातॄणां नियोजयति सात्यकिम् ॥६३ ततस्त्वरित मागम्य द्वारकां मधुसुदनः । पूर्वजं हलिनं श्रीमानिदं वचनमब्रवीत् ॥६२ ॥६४ ॥६५ ॥६६ हतः प्रसेनः सिंहेन शत्रुजिच्छतधन्वना | स्यमन्तकमहं मार्गे तस्य प्रहर हे प्रभो तदारोह रथं शीघ्रं भोजं हत्वा महवलम् । स्यमन्तको महावाही तदाऽस्माकं भविष्यति ततः प्रवृत्ते रुद्धे तु तुमुले भोजकृष्णयोः । शतधन्वा न चाक्रूरमवैक्षत्सर्वतो दिशि अनष्टश्वावरोहं तु कृत्वा भोजजनार्दनौ । शक्तोऽपि साध्याद्धादिक्यो नाक्रूरोऽभ्युपपद्यत अपयाने ततो बुद्धि भूयश्चक्रे भयान्वितः | योजनानां शतं साग्रं यथा च प्रत्यपद्यत ।।६७ ॥६८ ॥६ हुए भद्रकार को महाबलवान् शतधन्वा ने मारकर उस बहुमूल्य मणि को अक्रूर को दे दिया । नरश्रष्ठ अक्रूर ने मणि को लेते समय उससे प्रतिज्ञा करा लिया कि हमारे षड्यन्त्र को तुम्हें किसी से नहीं बतलाना होगा । कृष्ण जब तुम्हें पीड़ित करेगे तो हम सब लोग तुम्हारी सहायता करेंगे। इसमें कोई भी सन्देह नहीं है इस समय सारी द्वारिकापुरी हमारे वश मे है । पिता के मारे जाने पर यशस्विनी सत्यभामा बहुत दुखी हुई और रथ पर चढ़कर वारणावत नगर को गई १५७-६११ वहाँ पहुँचकर उसने भोजवंशीय शतधन्वा के इस दारुण कर्म को पति से निवेदन किया और परम कातर होकर उसके बगल में बैठकर आंसू गिराती रही । वारणावत मे पाण्डवों को जलजाने पर हरि ने पिण्डादिक क्रियाएं सम्पन्न को और उस समय अपने भाइयों के स्थान पर सात्यकि को नियुक्ति किया। भगवान् मधुसुदन ने तुरन्त द्वारकापुरी में जाकर अपने बड़े भाई हलघर से सभी बाते बतला कर यह निवेदन किया | 'हे सर्व-शक्ति- सम्पन्न ! जिस स्यमस्तक मणि के कारण सिंह ने प्रसेनजित् का निधन किया था, उसी के कारण दातधन्वा ने शत्रुजित का निषन किया है, मैं उसो स्यमस्तक को चाहता हूँ आप शतधन्वा का संहार करे | आप शीघ्र हो रथ पर सवार हों, हे महाबाहु ! महावलवान् भोज का संहार करने पर ही स्यमन्तक हम लोगों के हाथ लगेगा ।६२-६६। इस प्रकार परामर्श कर लेने के उपरान्त जब भगवान् कृष्ण और भोजवशी शतधन्वा में तुमुल युद्ध छिड़ गया तब पूर्व- प्रतिज्ञा के अनुसार शतवन्वा ने लड़ाई के मैदान में दसों दिशाओं में देखा पर अक्रूर का कही भी पता न लगा । रणक्षेत्र में भगवान् जनार्दन और शतधन्वा घोड़े पर सवार थे; उस समय हृदय से मित्र तथा सहायता समर्थ होने पर भी अक्रूर शतधन्वा को सहायता के लिए नही आए । इससे शतधस्वा बहुत भयभीत हुआ में