पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८८४

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षण्णवतितमोऽध्यायः ८६३ मणि स्यमन्तकं चैव जग्राहाऽऽत्मविशुद्धये । अनुनीय ऋक्षराजं निर्ययौ च तदा बिलात् एवं स मणिमादाय विशोध्याऽऽत्मानमात्मना । ददौ शक्नजिते तं वै र्माण सात्वतसंनिधौ कन्यां पुनर्जाम्बवतीमुवाह मधुसूदनः । तस्मान्मिथ्याभिशापात्स व्यमुच्यत जनार्दनः ॥४६ ॥५० ॥५१ इमां मिथ्याभिशस्त यः कृष्णस्येह व्यपोहिताम् | वेद मिथ्याभिशस्तेः स नाभिशस्यति कहिचित् ॥ दशस्वसृभ्यो भार्याभ्यः शत्रुजित्तः शतं सुताः । ख्यातिमन्तस्त्रयस्तेषां भङ्गकारस्तु पूर्वजः ॥५३ वोरो व्रतपतिश्चैव ह्यपस्वान्तश्व सुप्रियः || अथ द्वारवती नाम भङ्गकारस्य सुप्रजाः । सुषवे सा कुमारीस्तु तिस्रो रूपगुणान्विताः सत्यभामोत्तमा स्त्रोणां व्रतिनो च दृढव्रता | तथा तपस्विनी चैव पिता कृष्णस्य तां ददौ यत्तच्छक्रजितो कृष्णो मणिरत्तं स्यमन्तकम् | प्रादात्तद्वारयद्बभ्रुर्भोजेन शतधन्वना तदा हि प्रार्थयामास सत्यभामामनिन्दिताम् | अक्रूरो रत्नमन्विछ्रमण चैव स्यमन्तकम् भद्रकारं ततो हत्वा शतधन्वा महाबलः | रात्रौ तं मणिमादाय ततोऽक्रूराय दत्तवान् 1 ॥५४ ॥५५ ॥५६ ॥५७ ॥५८ विष्वक्सेन भगवान् कृष्ण को समर्पित कर दिया । भगवान् कृष्ण ने अपने ऊपर फैले हुए अपवादों की शुद्धि के लिये स्यमन्तकमणि को ऋक्षराज जमबवान् से ले लिया और उससे फिर अनुनय विनय कर विल से बाहर आये इस प्रकार स्यमन्तक मणि को प्राप्त कर उन्होंने अपने पुरुषार्थ से अपना अपयश दूर किया और ले जाकर समस्त सात्वत वंशियों के समक्ष शऋजित को समर्पित किया। तदनन्तर भगवान् मधुसूदन कृष्ण ने जाम्बवती से अपना विवाह किया। इस प्रकार उस मिथ्या अपवाद से जनार्दन भगवान् कृष्ण की मुक्ति हुई |४८ ५१ | भगवान् कृष्ण के ऊपर फैलायी गयी इस मिथ्या अपकीर्ति को दूर करने का वृत्तान्त जो व्यक्ति जानता है उसे कभी किसी प्रकार से इस प्रकार की मिथ्या अपकीति का भाजन नही होना पड़ता | शत्रुजित से उसकी दस पत्नियों में जो सब की सब सगी बहिन थी, एक सौ पुत्र उत्पन्न हुए, उनमें तीन ख्यात हुए, उनमें सब से बड़ा पुत्र भृङ्गकार था । अन्य दो पुत्रों के नाम वलवान् व्रतपति तथा सुप्रिय अपस्वान्त थे । भृङ्गकार को स्त्री द्वारवती सुन्दर सन्ततियों वाली थी, उसने तीन सर्वगुणसम्पन्न कन्याओं को उत्पन्न किया था। जिनमे स्त्रियो में परम सुन्दर सत्यभामा परम दृढव्रतपरायण, तथा तपस्विनी यी । पिता ने उसे कृष्ण को समर्पित करने को बात को थो, । कृष्ण ने जिस स्यमन्तक नामक बहुमूल्य मणि को शऋजित् को दिया था, उसे बभ्रु ने धारण किया था | भोज वंशीय शतधन्वा ने उससे उस मणि को छीनकर अक्रूर को दे दिया |५२-५६३ शतषन्वा ने परम सुन्दरी सत्यभामा की प्राप्ति के लिये अक्रूर से सहायता की प्रार्थना की, अक्रूर ने उस मणिश्रेष्ठ स्यमन्तक की प्राप्ति की आशा से उससे सहायता को याचना की। जिसपर रात्रि के समय सोते