पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८७०

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चतुर्नवतितमोऽध्यायः ॥२६ ।।२७ ॥२८ ॥२६ स हि नागसहस्रेण महिष्मत्यां नराधिपः । कर्कोटकसभां जित्वा पुरीं तत्र न्यवेशयत् सवै वेगं समुद्रस्य प्रावृदकालाम्बुजेक्षणः | क्रीडन्निव मुखोद्विग्नः प्रावृटुकालं चकार ह लुलिता फ्रीडता तेन हेमस्त्रग्दाममालिनी। ऊर्मिभ्रू कुटिसंनादा शङ्किताऽभ्येति नर्मदा पुरा स तामनुसरन्नवगाढो महार्णवम् । चकारोद्धृत्य वेलान्तं स कालं प्रावृषोद्वनम् तस्य बाहुसहस्रेण क्षोभ्यमाणे महोदधौ । भवन्ति लीना निश्चेष्टाः पातालस्था महासुराः चूर्णीकृतमहावीचिलीनमोनमहाविषाः | पतिता विद्धफेनौघमावर्तक्षिप्तदुस्सहम् चकार क्षोभयत्राजा दोः सहस्रेण सागरम् | देवासुरपरिक्षिप्तं क्षीरोदमिव सागरम् मन्दरक्षोभणकृता ह्यमृतोदकशङ्किताः । सहसोत्पादि (टि ) ता भीता भीमं दृष्ट्वा नृपोत्तमम् ॥३३ ॥३० ॥३१ ॥३२ ८४६ शोभायमान होता था । उस महाराज नराधिपति अर्जुन ने नागों की माहिष्मती नगरी में एक सहस्र नागों समेत कर्कोटक नागराज की सभा को पराजित कर वहां पर अपनी पुरी बसाई थी । २४-२६। वर्षाकालीन कमल के समान निर्मल सुन्दर नेत्रोंवाले उस महावीर अर्जुन ने खेल ही खेल में समुद्र का वेग रोककर असमय में हो वर्षाकाल का सा समय कर दिया । जल क्रीड़ा करते हुए उसके कंठ से सुवर्ण की माला खिसक कर नमंदा की धारा में गिर पड़ी थी, उससे सुशोभित एवं क्रीड़ा से आलोडित नर्मदा अपनी तरङ्गरूपी कातर भृकुटियों एवं तरंगों के शब्दों से शङ्किता के समान उनके अभिमुख गमन करती थी । प्राचीन काल में एक वार नर्मदा का अनुस करते हुए उस महाराज अर्जुन ने महासमुद्र जाकर उसका अवगाहन किया अपने सहस्रं बाहुओं से समुद्र के जल को आलोडित कर तटवर्ती वन प्रान्त को प्लावित कर दिया, इस प्रकार उस वन में उसने असमय में वर्षाकाल ला दिया |२७-२६। इस प्रकार सहस्रबाहुओं द्वारा आलोडित होने पर जब महासमुद्र विक्षुब्ध हो गया, तब पाताल लोक वासी महावलवान् असुर वृन्द कितने बेहोश हो गये और कितने इषर उधर भय के मारे छिप गये । उसके सहस्र बाहुदण्डों से ताड़ित होकर महासमुद्र की भीषण तरंगे चूर्णं चूर्णं हो गईं, बड़े बड़े मत्स्य एवं विषधर गण उसी में विलीन हो गये। जल राशि में फेनों के समूह तैरने लगे, महाभयानक भंवरें उठने लगीं। अपने सहस्र भुजदण्डों से उस महाराज अर्जुन ने समुद्र को इस प्रकार विक्षुब्ध कर दिया जैसे अमृत मंथन के समय देवताओं और दानवों ने मिलकर क्षीर- सागर को विक्षुब्ध कर दिया था |३०-३२॥ समुद्र में विराजमान उस भीमकाय नरपति अर्जुन को देखकर जलजन्तुओं को मन्दराचल द्वारा समुद्र मन्थन को आशंका हुई और वे अतिशीघ्र भयभीत एवं आतंकित हो गये । १. मूल प्रति मे 'मुखोद्विग्न : ' पाठ की कोई संगति नहीं बैठती । फा०-१०७