पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८७१

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वायुपुराणम् नतनिश्चलमूर्धानो बभूवुश्च महोरगाः | साया कदलीषण्डा निर्वातस्तिमिता इव ॥३४ स वै बद्ध्वा धनुर्यान उत्सिक्तः पञ्चभिः शतैः । लङ्कायां मोहयित्वा तु सवलं रावणं बलात् || निर्जित्य बद्ध्वा चाऽऽनीय माहिष्मत्यां बबन्ध तम् syö ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं च प्रसादयत् । मुमोच राजा पौलस्त्यं पुलस्त्येनानुपालितम् तस्य बाहुसहस्रस्य बभूव ज्यातलस्वनः । युगान्तेऽम्बुदवृक्षस्य स्फुटितस्याशनेरिव अहो मृधे महावीर्यं भार्गवो यस्य सोऽच्छिनत् । मृधे सहस्रं वाहूनां हेमतालवनं यथा तृषितेन कदाचित्स भिक्षितश्चित्रभानुना | सप्त द्वीपांश्चित्रभानोः प्रादाद्भिक्षां विशां पतिः पुराणि घोषान्ग्रामांश्च पत्तनानि च सर्वशः । जज्वाल तस्य नाणेषु चित्रभानुदिधक्षया स तस्य पुरुषेन्द्रस्य प्रतापेन महायशाः । ददाह कार्तवीर्यस्य शैलांश्चापि वनानि च स शून्यमाश्रमं सर्वं वरुणस्याऽऽत्मजस्य वै । ददाह सवनहीपांश्चित्रभानुः सहैह्यः स लेभे वरुणः पुत्रं पुरा भास्विनमुत्तमम् । वसिष्ठनासा स सुनिः ख्यातं आपच इत्युत Y ॥३५ ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३६ ॥४० ॥४१ ॥४२ ॥४३ 1 समुद्र में रहनेवाले भोषण विषधर सर्प उस महावीर अर्जुन को देखकर इस प्रकार विनत और निश्चल मस्तकवाले बन गये जैसे सांयकाल को हवा के बन्द हो जाने पर केलों के पेड़ निश्चल और निस्तब्ध हो जाते हैं । गर्वपूर्वक लंकापुरी में जाकर उस महावीर ने अपने कठोर धनुष से पाँच सो वाणों को छोड़कर सेना समेत रावण को बलपूर्वक मोहित कर लिया था, और इस प्रकार उसे पराजित कर बन्धन में डाल अपनी राजधानी माहिष्मती नगरी में लाकर बन्दी बनाया था |३३-३५॥ जब महर्षि पुलस्त्य ने जाकर उसको प्रसन्न किया, तब उनके अनुरोध पर रावण को छोड़ा था । उसके सहस्र बाहुओं से उत्पन्न होनेवाले प्रत्यञ्चा के टंकोर युगान्त के समय विजली गिरने और प्रलयंकर बादलो के भयावने शब्दों के समान होते थे । खेद है कि ऐसे महावलशाली कीर्तवीर्य की सहस्र बाहुओं को जमदग्नि-पुत्र परशुराम ने युद्ध क्षेत्र में हेमताल के वन की भांति काट डाला | कभी एक बार तृष्णा से व्याकुल होकर आदित्य ने अर्जुन से भिक्षा को याचना की थी, नरपति ने सूर्य को सातों द्वीपो समेत समस्त पृथ्वी को दान कर दिया। राजा के वाणों में स्थित होकर आदित्य ने जलाने की इच्छा से पृथ्वी के समस्त पुरों, ग्रामों, पशुशालाओं, एवं पतनो तक को भस्म कर दिया | उस पुरुषेन्द्र कीर्तवीर्य के प्रभाव से महान् यशस्वी आदित्य ने पृथ्वी के समस्त पर्वतों और वनो को भी भस्मं कर दिया । ३६-४१। हैहय कीर्तवीर्य को सहायता से सूर्य ने इस प्रकार वनों एवं द्वीपों समेत पृथ्वी को भस्म करते हुए वरुण के आत्मज का एक शून्य आश्रम भी चारो ओर से भस्म कर दिया | वरुण ने अपने इस पुत्र को, जो परम तेजस्वी एवं उत्तम गुणोंवाला था, प्राचीनकाल में प्राप्त किया था, उनका वह पुत्र मुनिवर वसिष्ठ के नाम से तथा आपव के नाम से प्रसिद्ध था ।