पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८६९

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८४८ वायुपुराणम् दश यज्ञसहस्राणि तेषु द्वोपेषु सप्तसु । निरर्गलाः स्म निर्वृत्ताः श्रूयन्ते तस्य धीमतः सर्वे यज्ञा महाबाहोस्तस्याऽऽसन्भूरितेजसः । सर्वे काश्चनवेदोकाः सर्वे यूपैश्च काञ्चनैः सर्वे देवैर्महाभार्गविमानस्थंरलंकृताः । गन्धर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवोपशोभिताः तस्य राज्ञो जगौ गाथां गन्धर्वो नारदस्तथा । चरितं तस्य राजर्षेर्महिमानं निरीक्ष्य च न नूनं कार्तवीर्यस्य गति यास्यन्ति मानवाः । यज्ञैर्दानैस्तपोभिश्च विक्रमेण श्रुतेन च द्वोपेषु सप्तसु स वै खड्गी वरशरासनो । रथी राजाऽप्यनुचरोऽन्योऽगाच्चैवानुदृश्यते अनष्टद्रव्यश्चैवाऽऽसीत्र शोको न च विभ्रमः | प्रभावेण महाराज्ञः प्रजा धर्मेण रक्षतः पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां स नराधिपः । स सप्तद्वोपवान्सम्राट् चक्रवर्ती बभूव ह स एष पशुपालोऽभूत्क्षेत्रपालस्तथैव च । स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्जुनोऽभवत् सवै बाहुसहस्रेण ज्याघातकठिनेन च । भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनेव भास्करः ॥१६ ।।१७ ॥१८ ॥१६ ॥२० ॥२१ ॥२२ ॥२३ ॥२४ ॥२५ अनेक योद्धा, ध्वजा, और रथ भी हो जाते थे । सुनते हैं उस परम चतुर राजा कीर्तवीर्य ने उन सातो द्वीपों में दस सहस्र यशों का अनुष्ठान सम्पन्न किया था, और वे सब यज्ञ निर्विघ्न समाप्त भी हो गये थे । परम तेजस्वी महावाहु उस कार्तवीर्यं के वे सव यज्ञ बड़े समारोह से सम्पन्न हुए थे, सव में सुवर्ण की वेदियाँ बनी थों, ओर मुवर्ण के खम्भे गढ़े थे |१२-१७। सभी महाभाग्यशाली देवगण विमानों पर सुशोभित थे । नित्य गन्धर्व और अप्सराएँ मा आकर उनकी शोभा बढ़ाते थे | उस महाराज की यशोगाथा का गन्धर्ष गण गान करते घे । उस राजपि कार्तवीर्य को अपार महिमा एवं निर्मल चरित्र को देखकर देवर्षि नारद भी उसका इस प्रकार गुण गान किया करते थे कि 'यह निश्चय है कि मनुष्य योनि में पैदा होने वाले कोई भी, उस महाराज कार्तवीर्यं के यज्ञ, तपस्या, दान, पराक्रम, पाण्डित्य आदि मे समानता नही प्राप्त कर सकते ।' सातो द्वीपों में वह महाराज तलवार और सुन्दर धनुष, वाण धारण किये हुए रथ पर सवार, राजा होकर भी पीछे-पीछे चलने वाला देखा जाता था। उसके राज्य में किसी का भी द्रव्य नष्ट नहीं होता था, न किसी को शोक था न राताप था । उस महाराज के शासन काल में धर्मपूर्वक प्रजाओं की रक्षा हुई । नरपति कार्तवीर्य इस प्रकार पचासो सहन वर्षों तक सातोंद्वीपों का एक मात्र चक्रवर्ती सम्राट रहा ।१८-२३। अपने राज्य मे वह स्वयं पशुओं की पालन करने वाला था, स्वयं खेतों को भी देखभाल रखता था, योगाभ्यासपरायण होने के कारण समय समय पर यह कार्तवीर्यार्जुन वृष्टि करके मेघों का भी कार्य करता था, धनुको डोरी खीचने से कड़े पड़े हुए एक सहस्र हाथों से सुशोभित वह महाराज शरत्कालीन सहस्र किरणोंवाले सूर्य की भांति