पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८६५

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८४४ वायुपुराणम् शुक्रेण च वरो दत्तः काव्येनोशनसा स्वयम् | पुत्रो यस्त्वाऽनुवर्तेत स राजा ते महामते भवतोऽनुमतोऽप्येवं पुरू राज्येऽभिषिच्यताम् । यः पुत्रो गुणसंपन्नो मातापित्रोहितः सदा || सर्वमर्हति कल्याणं कनीयानपि स प्रभुः अर्हः पुरुरिदं राज्यं यः प्रियः प्रियकृत्तव | वरदानेन शुक्रस्य न शक्यं वक्तुमुत्तरम् पौरजानपदैस्तुष्टैरित्युक्तो नाहुषस्तदा । अभिषिच्य ततः पूरुं स्वराज्ये सुतमात्मनः दिशि दक्षिणपूर्वस्यां तुर्वसुं तु न्यवेशयत् । दक्षिणापरतो राजा यदुं श्रेष्ठं न्यवेशयत् प्रतीच्यामुत्तरस्यां च द्रुह्यं चानुं च तावुभौ । सप्तद्वोपां ययातिस्तु जित्वा पृथ्वीं ससागराम् ॥ व्यभजत्पश्वधा राजा पुत्रेभ्यो नाहुषस्तदा तैरियं पृथिवी सर्वा सप्तद्वोपा सपत्तना | यथाप्रदेशं धर्मज्ञैर्धर्मेण प्रतिपाल्यते एवं विभज्य पृथिवीं पुत्रेभ्यो नाहुषस्तदा । पुत्रसंक्रमितश्रीस्तु प्रीतिमानभवनृपः धनुर्न्यस्य पृषत्कांश्च राज्यं चैव सुतेषु तु । प्रोतिमानभवद्राजा भारमावेश्य वन्धुषु ॥८५ ॥८६ ।।८७ ॥८८ 1158 1.80 ॥६१ ॥६२ ॥६३ शुक्राचार्य जी ने ऐसा वरदान दे रखा है कि 'हे महामतिमन् । जो पुत्र तुम्हारा आज्ञाकारी एवं अनुगामी होगा, वही राजा होगा। मैं समझता हूँ, आप लोगों की भी अनुमति इस कार्य में होगी । पुरु का राज्याभिषेक करते जाइये । जो पुत्र गुणवान् है, माता और पिता के कल्याण में सर्वदा निरत रहनेवाला है, वह सब से छोटा होकर भी कल्याण भाजन है और सम्पत्ति का उत्तराधिकारी है |८५-८६ | 'इस राज्य के योग्य पुरु ही है, जो तुम्हारा हितकारी है, प्रिय है, वही हम सबों को भी, प्रिय है। ऐसा कहते हुए ब्राह्मणादिकों ने राजा ययाति के मत का अनुमोदन किया, शुक्राचार्य के वरदान के कारण उन लोगों को प्रत्युत्तर करने का साहस नही हुआ ।' राजा की बातों से सन्तुष्ट पुर नगर वासियों के इस प्रकार अनुमोदन कर देने पर नहुप पुत्र राजा ययाति ने अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु का अपने पद पर राज्याभिषेक किया, दक्षिणपूर्व दिशा में तुर्वसु को अधिकारी बनाया । दक्षिण पश्चिम दिशा में सब से बड़े पुत्र यदु को स्थापित किया | उत्तर पश्चिम दिशा का अधिकार और अनु को दिया | सागर पर्यन्त विस्तृत सप्तद्वीपों समेत सारी पृथ्वी को जीत कर नहुष पुत्र महाराज ययाति ने अपने पाँचों पुत्रों में विभक्त कर दिया |८७-६०। धर्म के तत्त्वों को जाननेवाले उन पाँचों ययाति के पुत्रों ने सातों द्वीपों एवं नगरों समेत सारे पृथ्वी मण्डल का अपने-अपने प्रदेश तक धर्मपूर्वक प्रतिपालन किया । इस प्रकार अपने पुत्रों में राज्य का विभाग कर एवं अपनी सम्पत्ति एवं श्री को पुत्र मे सन्निविष्ट कर नहुष पुत्र राजा ययाति परम प्रसन्न हुए |९१-९२१ अपने धनुष वाण एवं राज्याधिकार को पुत्रों को सौप कर एवं समस्त कार्य भार बन्धुवर्गों को देकर राजा ययाति परम प्रसन्न हुए | इस