पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८६६

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त्रिनवतितमोऽध्यायः ॥६४ ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ अत्र गाथा महाराज्ञा पुरा गीता ययातिना । योऽभिप्रत्याहरन्कामान्कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति | हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते यत्पृथिव्यां व्रोहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः | नालमेकस्य तत्सर्वमिति पश्यन्न मुह्यति यदा तु कुरुते भावं सर्वभूतेषु पावकम् | कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म संपद्यते तदा यदा परान्न बिभेति यदा त्वस्मान्न बिभ्यति । यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म संपद्यते तदा या दुस्त्या दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः । दोषः प्राणान्तिको राजस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् ॥ जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यति जोर्यतः । जीविताशा धनाशा च जीर्यतोऽपि न जीर्यति ॥१०० यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम् | तृष्णाक्षयसुखस्यैतत्कलां नार्हति षोडशीम् ॥१०१ एवमुक्त्वा स राजर्षिः सदारः प्रस्थितो वनम् । भृगुतुङ्गे तपस्तप्त्वा तत्रैव च महायशाः ॥ पालयित्वा व्रतशतं तत्रैव स्वर्गमा (प्तनान्) प्नुयात् ८४५ ॥१०२ विषय में महाराज ययाति ने प्राचीनकाल में पुत्रों से जो कुछ कहा था उसे बतला रहा हूँ । 'जो मनुष्य सभी प्रकार के कामनाओं को कछुए के अंगों की तरह समेटकर छिपा लेता है, ( वही सच्चा मनुष्य है) कामनाएँ कभी इच्छित पदार्थों के उपभोग से शान्त नही होती प्रत्युय वे आग में घृत पड़ने के समान उपभोग करने से उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं |६३-६५१ समस्त पृथ्वी में जितना अन्न जो, सुवर्ण, पशु और स्त्रियां हैं, वे सब मिलकर भी एक मनुष्य के लिए पर्याप्त नही हैं । ऐसा जो देखता है, वह अज्ञान में नहीं पड़ता। जब मनुष्य सभी जीवों के कर्म से, मन से, वचन से, अग्नि की तरह समानता का व्यवहार करने लगता है, तब उसे ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है |६६-६७१ जब दूसरे से डर नही लगता, जब दूसरे लोग अपने से नहीं डरते, जब कोई इच्छा उत्पन्न नहीं होती, जब किसी के प्रति द्वेषभाव का उदय नहीं होता, तब ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है |१८| जो दुर्मतियों से नही छोड़ी जा सकती, जो वृद्ध होने पर भी नहीं बुढ़ाती, जो प्राणों का विनाश करनेवाले रोग एवं दोष की तरह भयानक है, उस तृष्णा को छोड़ देने पर हो सुख की प्राप्ति होती है |१९| वृद्ध हो जाने पर केश वृद्ध (सफेद) हो जाते हैं, दाँत वृद्ध हो ( टूटा ) जाते हैं, किन्तु जोवन की आशा और धन को आशा वृद्ध होने पर भी वृद्ध नहीं होती । कामनाओं की पूर्ति होने पर जो सुख मिलता है, दिव्य पदार्थों एवं वस्तुओं की प्राप्ति पर जो महान सुख होता है वह सब सुख, उस सुख की सोलहवीं कला ( अंश) की भी समानता नही कर सकता, जो तृष्णा के नाश हो जाने पर प्राप्त होता है |१००-१०१।' इस प्रकार महायशस्वी राजर्षि ययाति ने पुत्रों को शिक्षा देकर स्त्रीसमेत वन को प्रस्थान किया और मृगुतुङ्ग नामक स्थान में तपस्या कर, वही पर सो व्रतों का विधिवत् पालन कर स्वर्ग प्राप्त किया ।