पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८६३

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८४२ वायुपुराणम् अतिथीनन्नपानैश्च वैश्यांश्च परिपालनैः । आनृशंस्येन शूद्रांश्च दस्यून्संनिग्रहेण च धर्मेण च प्रजाः सर्वा यथावदनुरञ्जयन् | ययातिः पालयामास साक्षादिन्द्र इवापरः स राजा सिंहविक्रान्तो युवा विषयगोचरः | अविरोधेन धर्मस्य चचार सुखमुत्तमम् स मार्गमाण: कामानामन्तदोषनिदर्शनात् । विश्वाच्या सहितो रेमे वैभ्राजे नन्दने वने अपश्यत्स यदा तां वै वर्धमानां नृपस्तदा । गत्वा पुरोः सकाशं वं स्वं जरां प्रत्यपद्यत स संप्राप्य तु तान्कामांस्तृप्तः खिन्नश्च पार्थिवः | कालं वर्षसहस्रं वै सस्मार मनुजाधिप: परिसंख्याय कालं च कलाकाष्ठास्तथैव च । पूर्णं मत्वा ततः कालं पुरुं पुत्रमुवाच ह यथासुखं यथोत्साहं यथाकालमरंदम | सेविता विषयाः पुत्र यौवनेन मया तव पुरो प्रोतोऽस्मि भद्रं ते गृहाण त्वं स्वयौवनम् । राज्यं च त्वं गृहाणेदं त्वं हि मे प्रियकृत्सुतः प्रतिपेदे जरां राजा ययातिर्नहुषात्मजः । यौवनं प्रतिपेदे च पुरुः स्वं पुनरात्मनः अभिषेक्तुकामं च नृपं पुरुं पुत्रं कनीयसम् | ब्राह्मणप्रमुखा वर्णा इदं वचनमब्रुवन् ॥६६ ॥६७ ॥६८ ॥६६ ॥७० ॥७१ ॥७२ ॥७३ ।७४ ॥७५ ॥७६ ब्राह्मणों को सन्तुष्ट किया | अन्न पानादि द्वारा अतिथियों का समुचित सत्कार किया, व्यापार आदि में उपयुक्त सहायता देकर वैश्यों को सन्तुष्ट किया | अपनी कृपा एवं दया से शूद्रो को प्रसन्न किया, कड़े अनुशासन एवं दण्ड की व्यवस्था करके चारों को शान्त किया । इस प्रकार दूसरे इन्द्र को भाँति उस महाराज ययाति ने धर्मपूर्वक अपनी प्रजाओं का पालन किया १६५-६७ सिंह के समान विक्रम शाली, युवावस्था सम्पन्न राजा ययाति ने धर्म को मर्यादा की रक्षा करते हुए विषयो का सेवन किया, उत्तम सुख का अनुभव किया | वैभ्राज और नन्दन वन में विश्वाची के साथ उसने काम क्रीडा को, अन्ततः कामादि विषयो अन्त मे दुःख एवं दोष देखकर उसे विरक्ति हुई, उस समय जब उसे अपनी इस यौवनावस्था का स्मरण हुआ, जो बहुत बढ़ चुकी थी । अर्थात् जिसकी अवधि पूरी हो रही थी तब वह पुरु के पास आया और अपनी वृद्धावस्था ग्रहण की १६८-७०। यौवनावस्था में अनुभव किये गये आनन्दों एवं विषयों से उसे तृप्ति तो अवश्य हुई थी, किन्तु खेद भी हुआ । सुखों का अनुभव करते समय नरपति ययाति को जब एक सहस्र वर्ष के समय का स्मरण हुआ तो उसने घटो पला तक को गणना की और जब देखा कि सचमुच वह अवधि समाप्त हो गई है तो पुत्र पुरु से कहा, शत्रुओं को वश में करनेवाले ! मैंने अपने मन और उत्साह भर इस एक सहस्र वर्ष मे तुम्हारो यौवनावस्था लेकर विषयों का सेवन किया |७१-७३ | प्रिय पुरु ! मैं तुम्हारे ऊपर परम प्रसन्न हूँ, तुम्हारा कल्याण हो । बेटा ! आओ, और अपनो यौवनावस्था ग्रहण करो, लो, इस राज्य को भी ग्रहण करो, तुम्ही हमारे एकमात्र शुभचिन्तक पुत्र हो ।' इस प्रकार नहुषपुत्र राजा ययाति ने पुनः अपनी वृद्धावस्था ग्रहण और पुरु ने पुनः अपनी यौवनावस्था ग्रहण की १७४-७५। राज्य पद पर सब से छोटे पुत्र पुरु का अभिषेक करने की