पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८६२

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4 त्रिनवतितमोऽध्यायः प्रतिपत्स्यामि ते राजन्पाप्मानं जरया सह | गृहाण यौवनं मत्तश्वर कामान्यथेप्सितान् जरयाऽहं प्रतिच्छन्नो वयोरूपधरस्तव | यौवनं भवते दत्त्वा चरिष्यामि यथार्थवत् ययातिरुवाच पुरो प्रीतोऽस्मि भद्रं ते प्रीतश्चेदं ददामि ते । सर्वकामसमृद्धा ते प्रजा राज्ये भविष्यति + सूत उवाच पुरोरनुमतो राजा ययातिः स्वां जरां ततः । संक्रामयामास तदा प्रसादाद्भार्गवस्य तु यौवनेनाथ वयसा ययातिर्नहुषात्मजः । प्रीतियुक्तो नरश्रेष्ठश्चचार विषयान्स्वकान् यथाकामं यथोत्साहं यथाकालं यथासुखम् | धर्माविरोधाद्राजेन्द्रो यथार्हति स एव हि देवानतर्पयद्यज्ञैः पितृश्राद्धैस्तथैव च । दीनांश्चानुग्रहैरिष्टैः कामैश्च द्विजसत्तमान् ८४१ ॥५६ ॥६० + अत्राध्यायसमाप्तिः ख. पुस्तके | ॥६१ तैयार हूँ, मेरी यौवनावस्था ग्रहण कर आप यथेप्सित विषय भोगों का सेवन कर सकते हैं। मैं आपके स्वरूप और अवस्था --दोनों को धारण कर, स्वयं वृद्धावस्था में रह कर अपनी यौवनावस्था आपको समर्पित करूंगा और आप हो की तरह सब कार्य करूंगा ।५८-६०। फा० - १०६ ॥६२ ॥६३ ॥६४ ॥६५ ययाति ने कहा:-प्रिय पुरु ! मैं तुम्हारे ऊपर परम प्रसन्न हूँ तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हे यह आशीर्वाद दे रहा हूँ कि तुम्हारे राज्य में प्रजाओं की सारी कामनाएँ पूर्ण होगी, वे सर्वदा समृद्ध रहेंगी ।६१। सूत बोले:-

- इस प्रकार पुरु की अनुमति प्राप्त हो जाने पर नहुषपुत्र नरश्रेष्ठ महाराज

ययाति ने अपनी वृद्धावस्था को शुक्राचार्य की कृपा से पुरु में सन्निविष्ट कर पुरु को यौवनावस्था को स्वयं ग्रहण किया और परम प्रसन्न होकर उस यौवनावस्था द्वारा अनेक विषय भोगों का उपभोग किया | राजाधिराज ययाति ने पुत्र की यौवनावस्था द्वारा अपनी इच्छा के अनुसार, उत्साह के अनुसार समय के अनुसार, अधिकाधिक सुख प्राप्ति के उद्देश से विषय भोगों का सेवन किया, किन्तु ऐसा कोई आचरण नही किया, जिससे धर्म को मर्यादा नष्ट हो । ६२-६४ | उसने यज्ञों द्वारा देवताओं को सन्तुष्ट किया, श्राद्धों द्वारा पितरों को सन्तुष्ट किया, अनुग्रह द्वारा दोनों गरीबो का हितचिन्तन किया, मन चाहे पदार्थों की पूर्ति से विद्वान् के