पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८६१

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वायुपुराणम् अनुरुवाच जीर्ण: शिशुरहं तात जरया ह्यशुचिः सदा | न भजामि महाराज तां जरां नाभिकामये ययातिरुवाच ८४० यस्त्वं मे हृदयाज्जातो वयः स्वं न प्रयच्छसि । जरादोषस्त्वयोक्तोऽयं तस्मात्ते प्रतिपत्स्यते प्रजा च यौवनं प्राप्ता विनशिष्यत्यतस्तव | अग्निप्रस्कन्दनपरस्त्वं चाप्येव भविष्यसि पुरो त्वं प्रतिपद्यस्व पाप्मानं जरया सह । जरावली च मां तात पलितानि च पर्यगुः काव्यस्योशनसः शापान्न च तृप्तोऽस्मि यौवने | कंचित्कालं चरेयं वै विषयान्वयसा तव पूर्ण वर्षसहस्रे ते प्रतिदास्यामि यौवनम् | स्वं चैव प्रतिपत्स्यामि पाप्मानं जरया सह सूत उवाच एवमुक्तः प्रत्युवाच पुत्रः पितरमञ्जसा | यथाऽनुमन्यसे तात करिष्यामि तथैव च ॥५२ ॥५३ ॥५४ ॥५५ ॥५६ ॥५७ ॥५८ अनु ने 'कहा:-हे तात ! आप बहुत बुद्ध हो गये है, मैं अभी बालक हूँ, आपको वृद्धावस्था से में वृद्ध हो जाऊँगा, जिससे सर्वदा अपवित्र बना रहूँगा | हे महाराज ! इसलिये मैं उस वृद्धावस्था को ग्रहण नही कर सकता, वह हमें पसन्द नहीं है।५२॥ ययाति चोले:- तुम मेरे हृदय से उत्पन्न होकर भी अपनी यौवनावस्था नहीं दे रहे हो, तो वृद्धावस्था का जो दोप तुमने बतलाया है, वह सब तुम्हे प्राप्त होगा, तुमारी प्रजाएँ यौवनावस्था को प्राप्त करते ही विनष्ट हो जायंगी । तुम भी अग्नि मे गिरकर भस्म हो जाओगे ।' अनु को ऐसा शाप देने के उपरान्त महाराज ययाति अपने सब से छोटे पुत्र पुरु से बोले, प्रियपुत्र पुरु ! तुम मेरे पापो के साथ मेरी इस वृद्धावस्था को ग्रहण कर लो, मेरे अंगों में सिकुड़न आ यई है, केश सफेद हो गये हैं, चारो ओर से बुढापे ने आक्रान्त कर लिया है, किन्तु इतने पर भी में शुक्राचार्य के शाप के कारण यौवनावस्था से सन्तुष्ट नहीं हो सका हूँ, तुम्हारी यौवनावस्था प्राप्त कर मैं कुछ समय तक और विषयों का सेवन करना चाहता हूँ, एक सहस्र वर्ष बीत जाने पर मैं तुम्हारी यौवनावस्था तुम्हें वापस कर दूंगा, और उसी समय अपने समस्त पाप कर्मो समेत वृद्धता को तुमसे वापिस कर लूंगा |५३-५७। सूत ने कहा:-पिता पयाति के इस प्रकार कहने पर पुरु ने तुरन्त उत्तर दिया | तात ! आपको जैसी आज्ञा है, मैं वैसे ही करूंगा । राजन् ! आपके पापकर्मों के साथ इस वृद्धता को मैं सहन करने के लिए