पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८५८

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त्रिनवतितमोऽध्याय | जराया बहवो दोषा यानभोजनकारिणः | तस्माज्जरां न ते राजन्ग्रहीतुमहमुत्सहे सितश्मश्रुधरो दोनो जरया शिथिलीकृतः । वलीसंततगात्रश्च दुर्दर्शो दुर्बलाकृतिः अशक्तः कार्यकरणे परिभूतस्तु यौदने । महोपभीतिभिश्चैव तां जरां नाभिकामये सन्ति ते बहवः पुत्रा मत्तः प्रियतरा नृप । प्रतिगृह्णन्तु धर्मज्ञ पुत्रमन्यं वृणीष्व वै से एवमुक्तो यदुना तीव्रकोपसमन्वितः । उवाच वदतां श्रेष्ठो ज्येष्ठं तं गर्हयन्सुतम् आश्रमः कश्च वाऽन्योऽस्ति को वा धर्मविधिस्तव | मामनादृत्य दुर्बुद्धे यदात्थ नवदेशिक एवसुक्त्वा यदुं राजा शशापैनं स मन्युमान् | यस्त्वं मे हृदयाज्जातो वयः स्वं न प्रयच्छसि तस्मान्न राजभाग्मूढ प्रजा ते वै भविष्यति । तुर्वसो प्रतिपद्यस्व पाप्मानं जरया सह ८३७ ॥३२ ॥३३ ॥३४ ॥३५ ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३ वृद्धता ग्रहण करने में मै अशक्त हूँ |२८-३१| राजन् ! इस वृद्धता में भोजन पान आदि के बहुत बड़े दोष हो जाते हैं, अर्थात् बुढापे में ठीक से अन्न नहीं पचता, पानी आदि भी बहुत सवाच कर ( जाँच कर ) पोना पड़ता है, खान-पान के थोड़े-से हो असंयम से बड़ा कष्ट मिलता है। इसलिए भी आपको इस वृद्धता को अंगीकार करने का उत्साह मुझमें नहीं हो रहा है । श्वेत बाल धारण करनेवालों को यह वृद्धता एकदम शिथिल कर देती है। शरीर में सिकुड़न आ जाती है, देखने में चेहरा भद्दा हो जाता है, प्रकृति दुर्बल हो जाती है, कोई कार्य करने को भी शक्ति नहीं रह जाती, योवन के सुखों से वंचित एवं पराभूत होना पड़ता है । इस प्रकार की अनेक महान् विपत्तियों से घिरी हुई उस वृद्धता को मै अंगीकार नहीं करूंगा |३२-३४॥ नृपति ! आपके अन्य पुत्र भी हैं, जो मुझसे भी अधिक प्रिय हैं, हे धर्मज्ञ ! आप उन्हीं से इसका प्रस्ताव कोजिये, अन्य पुत्रों से ही इसको याचना करना उचित है ।' यदु के ऐसा कहने पर बोलने वालों में प्रवीण राजा ययाति परम क्रुद्ध होकर अपने बड़े पुत्र यदु को भर्त्सना करते हुए बोले | दुर्बुद्ध ! तुम्हारा कौन-सा आश्रम है ? गृहस्थाश्रम के अतिरिक्त क्या तुम्हारा कोई अन्य आश्रम धर्म है ? तुम्हारे धर्म की विधि कौन-सी है ? नये ढंग से उपदेश करनेवाले ! कुमति ! मेरा निरादर करके जिस धर्म का तुम पालन कर रहे हो, वह कौन-सा धर्म आश्रम या विधि है |३५-३७१ इस प्रकार की क्रोध पूर्ण बातें कर परम क्रोध में भरे हुए राजा ययाति ने यदु को शाप दे दिया। 'जो तुम मेरे हृदय से उत्पन्न होकर भी मुझे अपनी यौवन अवस्था नहीं दे रहे हो, सो हे मूढ़, तुम्हारी प्रजा और तुम कोई भी हमारे राज्य के उत्तराधिकारी न होगे।' इस प्रकार शाप देकर राजा ययाति ने तुर्वसु नामक अपने पुत्र से कहा, तुर्वसु ! मेरी वृद्धावस्था और मेरे पाप को तुम अंगीकार कर लो, पुत्र ! तुम्हारी यौवनावस्था से में विविध प्रकार के भोगों का उपभोग करना चहता हूँ । एक सहस्र वर्ष बीतने पर तुम्हारी