पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८४४

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८२३ द्विनवतितमोऽध्यायः ऋषय ऊचुः कथं धन्वन्तरिर्देवो मानुषेष्विह जज्ञिवान् । एतद्वेदितुमिच्छामस्ततो ब्रूहि प्रियं तथा सूत उवाच धन्वन्तरेः संभवोऽयं श्रूयतामिह वै द्विजाः । स संभूतः समुद्रान्ते मथ्यमानेऽमृते पुरा उत्पन्नः सकलात्पूर्व सर्वतश्च श्रिया वृतः । सर्वसंसिद्धकायं तं दृष्ट्वा विष्टम्भितः स्थितः || अजस्त्वमिति होवाच तस्मादजस्तु स स्मृतः ॥१० ॥११ अजः प्रोवाच विष्णुं तं तनयोऽस्मि तव प्रभो । विधत्स्व भागं स्थानं च मम लोके सुरोत्तम एवमुक्तः स दृष्ट्वा तु तथ्यं प्रोवाच स प्रभुः । कृतो यज्ञविभागस्तु यज्ञियैहि सुरैस्तथा ॥१२ वेदेषु विधियुक्तं च विधिहोत्रं महर्षिभिः । न शक्यमि (इ) ह होमो वै तुल्यं (ल्यः ) कतुं कदाचन ॥ अर्वाक्सुतोऽसि हे देव नाममन्त्रोऽसि वै प्रभो | द्वितीयायां तु संभूत्यां लोके ख्याति गमिष्यसि ॥१४ अणिमादियुता सिद्धिर्गर्भस्थस्य भविष्यति । तेनैव च शरीरेण देवत्वं प्राप्स्यसि प्रभो ॥ चरुमन्त्रै तैर्गन्धैर्यदयन्ति त्वां द्विजातयः ॥८ ॥ ॥१५ ऋषियों ने पूछा- सूत जी ! देव धन्वन्तरि किस प्रकार मनुष्य लोक मे उत्पन्न हुए, इस बात को हम लोग जानना चाहते हैं, हमारे इस प्रिय विषय को बतलाइये |८| सूत बोले- द्विजवृन्द ! धन्वन्तरि का जन्म-वृत्तान्त मैं बतला रहा हूँ, सुनिये । प्राचीनकाल में समुद्र मन्थन के अवसर पर देव धन्वन्तरि का आविर्भाव हुआ था । वे सब से पहले और सभी प्रकार की कान्तियों से समन्वित उत्पन्न हुए थे, इस प्रकार सब प्रकार के गुणों एवं कान्तियों से विभूषित उनके शरीर को देखकर देवगण भौचक्के रह गये और बोल उठे कि "तुम अज हो ।" इसी कारण वश वे अज नाम से विख्यात हुए। तदनन्तर अज ने विष्णु से कहा, प्रभो ! मै आप का पुत्र हूँ, सुरोत्तम ! लोक में हमारे लिये स्थान एवं यज्ञादि में हमारे लिये अंश की व्यवस्था कीजिये' |९-११। अज के ऐसा कहने पर प्रभु विष्णु ने अज की ओर देखकर ये तथ्यपूर्ण बातें कही, 'हे देव ! यज्ञ के विधान बनानेवाले देवताओं ने यज्ञादि में अंशों के विभाग आदि की व्यवस्था पहले ही से बना दी है, महर्षियो द्वारा वेदों में उनके लिये विधान युक्त हवन करने की प्रक्रिया बादि भी निर्धारित हो चुकी है, तुम बाद में उत्पन्न होनेवाले पुत्र हो, अतः हवनादि में उन देवताओं के साथ, जिनके लिये अंश प्राप्त करने की व्यवस्था बँध चुकी है, तुम्हे समानता नही प्राप्त करा सकता | हे समर्थ ! तुम केवल नाम ही मंत्र रूप हो । दूसरे जन्म में तुम लोक में ख्याति प्राप्त करोगे । गर्भ में ही तुम्हें अणिमा आदि सिद्धियों को प्राप्ति होगी। परम प्रभावशालिन् ! उसी शरीर से तुम्हें देवगण की भी प्राप्ति होगी । उस समय द्विजाति गण चरु, घृत, गन्ध आदि द्रव्यों से मंत्रोच्चारण पूर्वक तुम्हारी पूजा करेंगे । १२-१५। उसके