पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८४२

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एकनवतितमोऽध्यायः ॥१११ ॥११२ ॥११३ न्यायागतानां द्रव्याणां तीर्थे संप्रतिपादनम् | कामाननभिसंधाय यजते च ददानि च स दानफलमाप्नोति तच्च दानं सुखोदयम् । दानेन भोगानाप्नोति स्वर्ग सत्येन गच्छति तपसा तु सुगुप्तेन लोकाविष्टभ्य तिष्ठति | विष्टभ्य स तु तेजस्वी लोकेष्वानन्त्यमश्नुते दानाच्छ्रे यस्तथा यज्ञो यज्ञाच्छ्रे यस्तथा तपः | संन्यास्तपसः श्रेयांस्तस्माज्ज्ञानं गुरु स्मृतम् ॥११४ श्रूयन्ते हि तपः सिद्धाः क्षात्रोपेता द्विजातयः | विश्वामित्रो नरपतिर्माधाता संकृतिः कपिः कपेश्च पुरुकुत्सश्च सत्यश्चानृहवानथुः । आष्टिषेणोऽजमीढश्च भागान्योऽन्यस्तथैव च कक्षीवश्चैव शिजयस्तथाऽज्ये च महारथाः । रथोतरश्च रुन्दश्च विष्णुवृद्धादयो नृपाः क्षात्रोपेताः स्मृता होते तपसा ऋषितां गताः । एते राजर्षयः सर्वे सिद्धि सुमहतीं गताः ॥ अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि अयोवंशं महात्मनः ॥११५ ॥११६ ॥११७ इति महापुराणे वायुप्रोक्ते अमावसुवंशानुकीर्तनम् नामैकनवतितमोऽध्यायः ॥६१॥ ८२१ ॥११८ " करते, अथवा बिना किसी कामना के यज्ञ दान करते हैं, वही दाम के वास्तविक फल को प्राप्त करते हैं, और वही दान सुख शान्ति एवं समृद्धि देने वाला है | ११०-१११३ । दान द्वारा मनुष्य विविध प्रकार के भोगों की प्राप्ति करता है, सत्य द्वारा स्वर्ग लोक की प्राप्ति करता है, तथा परम गोपनीय ढंग से की गई तपस्या द्वारा समस्त लोक का अतिक्रमण कर स्थित होता है, अर्थात् गुप्त तपस्या द्वार समस्त लोक से ऊपर होता है । इस प्रकार समस्त लोक का अतिक्रमण करनेवाला परम तेजस्वी तपस्वी सभी लोकों में अनन्त अक्षय सुख की प्राप्ति करता है । दान की अपेक्षा यज्ञ कल्याणकारी है, यज्ञ से बढ़कर कल्याणकारी तपस्या है, तपस्या से भी बढ़कर संन्यास की महत्ता है, और संन्यास से भी बढ़कर कल्याण दायी एवं महान् ज्ञान कहा गया है |११२-११४ | ऐसा सुना जाता है कि क्षत्रिय-गुण-कर्म-स्वभाव वाले अनेक द्विजातियों ने तपस्या द्वारा सिद्धि प्राप्त की। नरपति विश्वामित्र, मान्धाता, संकृति, कपि, पुरुकुत्स, सत्य, आगृहवान् ऋथु, आष्टिपेण, अजमीढ भागान्य (?) अन्य (?) कक्षोव, शिजय, तथा अन्य महारथी रथीतर, रुन्द, विष्णूवृद्धादि राजाओं ने क्षत्रिय जाति में उत्पन्न होकर अपनी तपस्या द्वारा ऋषि पदवी प्राप्त की । इन सभी राजपियों ने अपनी महान् तपस्या द्वारा परम सिद्धि की प्राप्ति की । अब इसके उपरान्त महान् पराक्रमी राजा ( अयु) (आयु ) के वंश का वर्णन कर रहा हूँ |११५ - ११८ श्री वायुमहापुराण में अमावसुवंशानुकीर्तन नामक इक्यानवेवां अध्याय समाप्त ||११||