पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८४१

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८२० पायुपुराणम् कौशिका : सौश्रुताश्चैव तथाऽन्ये सैंधवायनाः । पौरोरवस्य पुण्यस्य ब्रह्मर्षेः कौशिकस्य तु दृषद्वतीसुतश्चापि विश्वामित्रात्तथाष्टकः | अप्टकस्य सुतो यो हि प्रोक्तो जह, नुगणो मया ऋपय ऊचुः किं लक्षणेन धर्मेण तपसेह श्रुतेन वा । ब्राह्मण्यं समनुप्राप्तं विश्वामित्रादिभिर्नृ पैः येन येनाभिधानेन ब्राह्मण्यं क्षत्रिया गताः । विशेषं ज्ञातुमिच्छामस्तपसा दानतस्तथा एवमुतस्ततो वाक्यमनवोदिदसर्थवत् | अन्यायोपगतैर्द्रव्ये राहूय द्विजसत्तमान् ॥ धर्माभिकाङ्क्षी यजते न धर्मफलमश्नुते धर्मं चैतं समाख्याय पापात्मा पुरुषाधमः । ददाति दानं विप्रेभ्यो लोकानां दम्भकारणात् जपं कृत्वा तथा तीव्रं धनलोभान्निरङ्कुशः । रागमोहान्वितो ह्यन्ते पावनार्थं ददातिं यः तेन दत्तानि दानानि अफलानि भवन्त्युत | तस्य धर्मप्रवृत्तस्य हिंसकस्य द्वरात्मनः एवं लब्ध्वा धनं मोहाद्ददतो यजतश्च ह । संविलष्टकर्मणो दानं न तिष्ठति दुरात्मनः ॥१०२ ॥१०३ ॥१०४ ॥१०५ ।१०६ ॥१०७ ॥१०८ ॥१०६ ॥११० साथ कहा जाता है । कौशिक, सौश्रुत एवं संघवायन नाम से प्रसिद्ध वंश में उत्पन्न होनेवाले, पुरुरवा के वंश मे उत्पन्न पुण्यशालो ब्रह्मपि कौशिक के गोत्र में कहे जाते हैं। विश्वामित्र से दूपट्टी में उत्पन्न होनेवाले एक पुत्र का नाम अष्टक था, अण्टक के पुत्र जह नुगण हुए, जिसका वर्णन ऊपर किया जा चुका |६८-१०३। ऋषिवृन्द बोले – सूत जी ! इस लोक में उत्पन्न होकर विश्वामित्र प्रभृति क्षत्रिय राजाओं ने किस प्रकार के धर्म, तपस्या अथवा ज्ञान द्वारा ब्राह्मणत्व की प्राप्ति की, जिन-जिन सत्कर्मों अथवा ना सपस्या द्वारा क्षत्रिय लोग ब्राह्मण हुए, उन उनको विशेष रूप से हम लोग जानना चाहते हैं।' ऋषियों के इस प्रकार पूछने पर सूत जी तात्पर्य से भरी हुई यह वाणी चोले – ऋषिवृन्द ! अन्याय से उपार्जित किये गये द्रव्य द्वारा धर्म की आकांक्षा से अच्छे-अच्छे विद्वान् ब्राह्मणों को बुलाकर जो यज्ञादिक सत्कर्म करते हैं, वे धर्म का फल नहीं प्राप्त करते ।१०४-१०६। जो पापात्मा नोच पुरुष दम्भवण 'मैं यह धर्मकार्य कर रहा हूँ इस प्रकार का प्रचार कर के, लोक में अपनी ख्याति प्राप्त करने के उद्देश्य से, ब्राह्मणों को दान देता है, अथवा जो निरंकुश व्यक्ति धन के लोभ से कठोर जप करता है, या राग मोहषण पहले पाप करके अन्त में पवित्र होने के उद्देश से दान करता है, उन सब के दानादि सत्कर्म निष्फल होते हैं । दुरात्मा वास्तव में हिस्रभावना से घर्मं में प्रवृत्त होते है ।१०७-१०६। इस प्रकार के अन्याय द्वारा धन प्राप्त कर मोहवश जो दुरात्मा, क्रूरकर्मा दान करता है अथवा यज्ञ करता है, वह नष्ट हो जाता है, टिकता नहीं । इसलिये न्यायतः प्राप्त न उपयुक्त तीर्थं (पात्र) में जो दान करते हैं, अपने मनोरयों के लिए किसी प्रकार की अभिसंधि (षड्यंत्र) नही