पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८३८

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

एकनवतितमोऽध्यायः एवमुक्त्वा तु तां भार्यामृचीको भृगुनन्दनः | तपस्याभिरतो नित्यमरण्यं प्रविवेश ह गाधिः सदारस्तु तदा ऋचीकाश्रममभ्यगात् | तीर्थयात्राप्रसङ्गेन सुतां द्रष्टुं नरेश्वरः चरुद्वयं गृहोत्वा तु ऋषेः सत्यवती तदा । भर्तुर्वचनमव्यग्ग्रा हृष्टा मात्रे न्यवेदयत् माता तु तस्यै देवेन दुहित्रे स्वं चरुं ददौ । तस्याश्चरुमथाज्ञानादात्मनः सा चकार ह अथ सत्यवती गर्भ क्षत्रियान्तकरं शुभम् | धारयामास दीप्तेन वपुषा घोरदर्शना तमृचीकस्ततो दृष्ट्वा योगेनाप्यनुमृश्य च । तदाऽब्रवीद्विजश्रेष्ठः स्वां भार्यां वरवणिनीम् मात्राऽसि वश्चिता भद्रे चरुवत्या सहेतुना | जनिष्यति हि पुत्रस्ते क्रूरकर्माऽतिदारुणः माता जनिष्यते वाऽपि तथाभूतं तपोधनम् । विश्वं हि ब्रह्म तपसा मया तत्र समर्पितम् एवमुक्त्वा महाभागा भर्त्रा सत्यवती तदा | प्रसादयामास पति सुतो मे नेदृशो भवेत् ॥ ब्राह्मणापसदस्त्वन्य इत्युक्तो मुनिरब्रवीत् नैष संकल्पितः कामो मया भद्रे तथा त्वया | उग्रकर्मा भवेत्पुत्रः पितुर्मातुश्च कारणात् ८१७ ॥७१ ॥७२ ॥७३ ॥७४ ॥७५ ॥७६ ॥७७ ॥७८ ॥७६ ॥८० भृगुवशोत्पन्न ऋचीक अपनी श्री सत्यवती से ये बातें कर तपस्या के लिए जंगल की ओर चले गये, वे सर्वदा तपस्या ही में लगे रहते थे । संयोगतः उसी अवसर पर अपनी स्त्री समेत राजा गाधि ऋचीक के आश्रम पर तीर्थयात्रा के प्रसंग से घूमते घूमते अपनी पुत्री को देखने को आ गये १७१-७२१ परम शान्तचित्त सत्यवती ने ऋषिवर्य ऋचीक के दिये हुए दोनो चरुओं को लेकर परमप्रसन्न मन माता से उस वृत्तान्त को साद्यन्त बतलाया । भाग्यवश उनकी माता ने अपना चरु पुत्री सत्यवती को दिया और बिना उसका प्रभाव जाने ही सत्य- वती के चरु को स्वयं ग्रहण किया। फलतः सत्यवती ने क्षत्रियों का विनाश करनेवाला परम तेजस्वी गर्भ को धारण किया । उस समय उसको कान्ति बहुत बढ़ गई, शरीर से वह भयानक दिखाई पड़ने लगी। द्विजश्रेष्ठ ऋचीक ने अपनी सुन्दरी पत्नी की यह दशा देखकर योगबल से सारी स्थिति जान ली । वे बोले, 'भद्रे ! माता ने तुम्हे ठग लिया है, उसने विशेष कारण से तुम्हारे चरु को स्वयं ले लिया है इसके फलस्वरूप तुम्हारा पुत्र परम कठोर चित्तवाला एवं क्रूरकर्मा उत्पन्न होगा |७३-७७। और तुम्हारी माता, परम तपस्वी पुत्र उत्पन्न करेगी, जैसा मैने तुम्हे बतलाया था । मैंने तुम्हारे उस चरु में अपने तपोवल से समस्त ब्रह्मज्ञान को समर्पित किया था । पति के ऐसा कहने पर महाभाग्यशालिनी सत्यवती ने पति को बड़ी आराधना की और इस बात के लिए राजी किया कि मेरा पुत्र वैसा न हो जो नीच ब्राह्मण कहा जाय ।' सत्यवती की इस प्रार्थना पर मुनिवर ऋचीक ने कहा; भद्रे ! मैने या तुमने विचार करके ऐसी इच्छा नहीं की थी कि हमारा पुत्र ऐसा क्रूर कर्मा हो अर्थात् यह देव विधान है । प्रायः पिता और माता के कारण से पुत्र उग्रकर्म करनेवाले होते हैं |७८-८० ऋचीक के ऐसा कहने पर सत्यवती फा०-१०३