पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८२७

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८०६ वायुपुराणम् ॥१६ ॥२० हिरण्यवर्मा या देव्यो धारयन्त्यात्मन ( जगत् । विभुस्तासां भवेत्सोमः प्रख्यातः स्वेन कर्मणा ॥१८ ततस्तस्मै ददौ राज्यं ब्रह्मा ब्रह्मविदां वरः । बोजौषधिषु विप्राणामपां च द्विजसत्तमाः सोऽभिषिक्तो महातेजा महाराज्येन राजराट् | लोकानां भावयामास स्वभावाश्चपतां वरः सप्तर्षिशतिरिन्दोस्तु दाक्षायण्यो महाव्रताः । ददौ प्राचेतसो दक्षो नक्षत्राणीति या विदुः स तत्प्राप्य महद्राज्यं सोमः सोमवतां प्रभुः । समा जज्ञे राजसूयं सहस्रशतदक्षिणम् हिरण्यगर्भश्चोद्गाता ब्रह्मा ब्रह्मत्वमेयिवान् । सदस्यस्तत्र भगवान्हरिर्नारायणः प्रभुः ॥ सनत्कुमारप्रमुखैराद्यैर्बह्मर्षिभिचं तः ॥२१ ॥२२ ॥२३ ॥२५ दक्षिणामददात्सोमस्त्रील्लांकातिति नः श्रुतम् । तेभ्यो ब्रह्मषिमुख्येभ्यः सदस्येभ्यस्तु वै द्विजाः ॥२४ तं सिनी च कुहूश्चैव वपुः पुष्टिः प्रभा वसुः । कीर्तिधृ तिश्च लक्ष्मीश्च नव देव्यः सिषेविरे प्राप्यावभृथमव्यग्रः सर्वदेवपूजितः । अतिराजाति राजेन्द्रो दशधाऽतापयद्दिशः तदा तत्प्राप्य दुष्पाप मैश्वर्यमृषिसंस्तुतम् । स विभ्रममतिविप्रा विनयोऽविनयाहृतः ॥२६ ॥२७ हैं, उन्हीं के गर्भ से परम तेजस्वी एवं सर्वसमर्थ चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई और वे अपने कर्मों द्वारा प्रख्यात हुए । ऋषिवृन्द ! तदनन्तर ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ भगवान् ब्रह्मा ने चन्द्रमा को समस्त बीजों, ओषधियों, ब्राह्मणों एवं जल जगत् का राज्यभार समर्पित किया। इस महान् दायित्वपूर्ण राज्य पद पर प्रतिष्ठित होने पर चन्द्रमा का प्रताप बहुत अधिक बढ गया, तपस्वियों में अग्रगण्य चन्द्रमा ने इस पद पर प्रतिष्ठित होकर अपने सुन्दर स्वभाव से समस्त लोक को परम सन्तुष्ट रखा | प्रचेता के पुत्र दक्ष ने दाक्षायणी के गर्भ से उत्पन्न, परम तपो व्रत पालनेवाली सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमा को समर्पित की, जिन्हें लोग नक्षत्र नाम से जानते हैं |१८-२१॥ ब्राह्मणों के स्वामी चन्द्रमा ने इत बड़े राज्याधिकार की प्राप्ति के बाद एक विराट् राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया, जिसमें लाखों की दक्षिणा प्रदान की । उस विशाल राजसूय यज्ञ में भगवान् हिरण्यगर्भ उद्गाता के पद पर ब्रह्मा ब्रह्मा के पद पर नारायण विष्णु सदस्य के स्थान पर, सनत्कुमार प्रभृति आद्य महर्षियों समेत विराजमान थे । द्विजवर्यवृन्द ! उस यज्ञ में चन्द्रमा ने उन प्रमुख ब्रह्मषियों को तथा जो सदस्य बने हुए थे उन्हें दक्षिण रूप में तीनों लोकों को समर्पित कर दिया - ऐसा हमने सुना है |२२-२४१ उस चन्द्रमा की सिनी, कुहूँ, वपु, पुष्टि, प्रभा, वसु, कीर्ति, धृति तथा लक्ष्मी- ये नवों देवियाँ सेवा कर रही थीं। उस राजसूय यज्ञ का अवभृथ स्नान कर चुकने के उपरान्त सभी देवताओ और ऋपियों से सत्कार प्राप्त कर चन्द्रमा जब निश्चित हो गये, तब अपने विशाल साम्राज्य के सिंहासन पर समासीन होकर, राजाधिराज बनकर दसों दिशाओं को दस प्रकार से तपाने लगे ।२५-२६। विप्रवृन्द ! ऋषि लोग जिसकी स्तुति करते थे- ऐसे दुष्प्राप्य ऐश्वयं की प्राप्ति