पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८२५

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८०४ वायुपुराणम् अथ नवतितमोऽध्यायः तत्र सोमजन्मविचरणम् सूत उवाच पिता सोमस्य वै विप्रा जज्ञेऽत्रिर्भगवानृषिः । तत्रात्रिः सर्वलोकानां तस्थौ स्वेनमये धृतः कर्मणा मनसा वाचा शुभान्येव समाचरन् । काष्ठकुड्यशिलाभूत ऊर्ध्वमाहर्महाद्युतिः सुदुश्वरं नाम तपो येन तप्तं महत्पुरा । त्रीणि वर्षसहस्राणि दिव्यानीति हि नः श्रुतम् तस्योर्ध्वरेतसस्तत्र स्थितस्यानिमिषस्पृहा । सोमत्वं तनुरापेदे महायुद्धिः स वै द्विजः ऊर्ध्वमाचक्रमे तस्य सोमत्वं भावितात्मनः । सोमः सुस्राव नेत्राभ्यां दश वा द्योतयन्दिशः तं गर्भ विधिनादिष्टा दश देव्यो दधुस्तदा । समेत्य धारयामासुर्नच तास्तमशक्नुवन् स ताभ्यः सहसैवाथ दिग्भ्यो गर्भः प्रभान्वितः । यथाऽवभासयल्लाँकान्शीतांशुः सर्वभावनः ॥१ ॥२ ॥३ ॥४ ॥५ ॥६ ॥७ अध्याय ६० चन्द्रमा का जन्म वृतान्त सूत वोले – "ऋषि वृन्द ! चन्द्रमा के पिता परम तेजस्वी एवं ऐश्वयंशाली अत्रि ऋषि थे । वे समस्त लोकों के कल्याणार्थं तपस्या में निरत रहते थे |१| मनसा, वाचा, कर्मणा सर्वदा शुभ कार्यों में ही वे तत्पर रहा करते थे । काष्ठ, भीत अथवा पत्थर की चट्टान की भांति परम तेजस्वी ने महर्षि सर्वदा ऊपर बाहु किये हुए ऐसी तपस्या में — जिसका नाम हो दुश्चर था - निरत थे । ऐसा हम लोगों ने सुना है कि उस बठोर तपस्या में महपि अत्रि देवताओं के तीन सहस्र वर्ष तक लगे रहे ।२-३॥ परम ब्रह्मचारी ऊर्ध्वरेता महर्षि अत्रि ने इतनी लम्बी अवधि तक पलक मारने की इच्छा नहीं की, अर्थात् निनिमेष तपस्या में लगे हो रहे । इस परम कठोर तप के प्रभाव से द्विजवर्यं महाबुद्धिमान् अत्रि का शरीर चन्द्रमा की भाँति निर्मल हो गया । आत्मा को वश मे करनेवाले उन भगवान् अत्रि के सोमत्व ने ऊर्ध्वं देश पर आक्रमण किया, अर्थात् उनके शिरोभाग की अतीव कान्ति बढ़ गई, ठीक उसी समय दसों दिशाओ को प्रकाशित करते हुए उनके दोनों नेत्रों से सोम नीचे चू पडा ।४-५ । ब्रह्मा के आदेशानुसार उस गर्भं को दसों देवियों (दिशाओं) ने धारण कर लिया, किन्तु एक साथ मिलकर धारण करने पर भी वे उम गर्भ को धारण करने में असमर्थ हो गईं । परम तेजोमय