पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८०८

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अष्टाशीतितमोऽध्यायः तमधर्मेण सयुक्तं पिता त्रय्यारुणोऽत्यजत् । अपध्वंसेति बहुशोऽवदत्नोधसमन्वितः पितरं सोऽब्रवीदेकः क्व गच्छामीति वै सुहुः । पिता चैनमथोवाच श्वपाकैः सह वर्तय नाहं पुत्रेण पुत्रार्थी त्वयाऽद्य कुलपांसन | इत्युक्तः स निराक्क्रामन्नगराद्वचनाद्विभो तु न चैनं धारयामास वसिष्ठो भगवानृषिः । स तु सत्यव्रतो धीमाञ्श्वपाकावसथान्तिकम् ॥ पित्रा मुक्तोऽवसद्वीरः पिता चास्य वनं यथौ तस्मिस्तु विषये तस्य नावर्षत्पाकशासनः । समा द्वादश संपूर्णास्तेनाधर्मेण वै तदा दारांस्तु तस्य विषये विश्वामित्रो महातपाः । संन्यस्य सागरानूपे चचार विपुलं तपः तस्य पत्नी बले बद्ध्वा मध्यमं पुत्रमौरसम् । शिष्टानां भरणार्थाय व्यक्तीणाद्गोशतेन वै तं तु बद्धं गले दृष्ट्वा विक्रीतं तं नरोत्तमः | महर्षिपुत्रं धर्मात्मा मोक्षयामास सुव्रतः सत्यव्रतो महाबुद्धिर्भरणं तस्य चाकरोत् । विश्वामित्रस्य तुष्टयर्थमनुकम्पार्थमेव च सोऽभवद्गालवो नाम गले बद्धो महातपाः | महर्षिः कौशिकस्तातस्तेन वीर्येण मोक्षितः तस्य व्रतेन भक्तया च कृपया च प्रतिज्ञया । विश्वामित्रकलत्रं च बभार विनये स्थितः ७८७ ॥८१ ॥८२ ॥८३ ॥८४ ॥८५ ॥८६ ॥८७ ॥८८ ॥८६ 1180 ॥६१ उसका परित्याग कर दिया । और परम क्रुद्ध होकर अनेक बार उससे कहा कि 'तुम हमारे घर से बाहर निकल जा ।" अपने पिता के एकमात्र पुत्र सत्यव्रत ने जब पिता से बारम्बार पूछा कि 'मैं कहाँ जाऊँ ।' तब पिता ने कहा कि चाण्डालों के साथ जाकर निवास कर, हे कुल में कलंक लगानेवाले ! तुम्हारे जैसे नालायक पुत्र से में पुत्रवान् नहीं होना चाहता ।' हे परम प्रतापशाली ! पिता के इस प्रकार निरादर पूर्ण वचन कहे जाने पर सत्यव्रत नगर से बाहर निकल गये। उस समय परम प्रभावशाली महर्षि वसिष्ठ ने भी उन्हें घर रहने के लिये नही रोका । इधर, परम बुद्धिमान एवं वीर सत्यव्रत पिता के परित्याग कर देने पर चाण्डालों की वस्ती के समीप जाकर बस गये और उधर उनके पिता बन को चले गये 15०-८४ | इस अधर्म से उप प्रान्त में इन्द्र ने बारह वर्षों तक वृष्टि नहीं की उसी प्रान्त में महातपस्वी विश्वामित्र अपने स्त्री पुत्रों को निराधार छोड़कर सागर के तटवर्ती प्रान्त में घोर तप कर रहे थे, उनकी पत्नी ने अपने मँझले पुत्र को गले में बांधकर शेष पुत्रों के भरण-पोषण के लिये सौ गौओं के बदले बेंच दिया था । व्रतपरायण, वर्मात्मा नरपति सत्यव्रत ने महर्षि पुत्र विश्वामित्र के मँझले पुत्र को इस प्रकार गले में बँधा और विक्रीत देखकर उस संकट से छुड़ाया ८५८८ तदुपरान्त उस महावुद्धिमान राजा ने महर्षि विश्वामित्र को सन्तुष्ट और प्रसन्न करने के लिये उनके पुत्र का पालन-पोषण किया | गले में बंधने के कारण विश्वामित्र के उस महातपस्वी पुत्र का नाम गालव पड़ा। इस प्रकार महर्षि विश्वामित्र का पुत्र उस बलवान् राजा के द्वारा बचाया गया। उसने अपनी व्रत परायणता, भक्ति, कृपा सत्यप्रतिज्ञा एवं विनय से महर्षि विश्वामित्र की स्त्री का भी भरण-पोषण किया। विश्वामित्र के आश्रम