पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८०९

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७८८ वायुपुराणम् हत्वा मृगान्वराहांश्च महिषांश्च वनेचरान् । विश्वामित्राश्रमाभ्यासे तन्मांसमपचत्ततः उपांशुव्रतगास्थाय दीक्षां द्वादशवविकीम् । पितुनियोगादभजन्नृपे तु वनमास्थिते अयोध्यां चैव राज्यं च तथैवान्तःपुरं मुनिः । याज्योपाध्यायसंयोगाद्वशिष्ठः पर्यरक्षत सत्यव्रतस्तु वाल्यात्तु भाविनोऽर्थस्य वै बलात् । वशिष्ठेऽम्यधिकं मन्युं धारयामास मन्युना पित्रा रुस्तदा राष्ट्रात्परित्यक्तं स्वमात्मजम् । न वारयामास मुनिर्वसिष्ठः कारणेन वै पाणिग्रहणमन्त्राणां निष्ठा स्यात्सप्तमे पदे । एवं सत्यव्रतस्तान्वै हृतवान्सप्तमे पदे जानन्धर्मान्वसिष्ठस्तु न च मन्त्रानिहेच्छति । इति सत्यव्रते रोषं वसिष्ठो मनसाऽकरोत् गुरुबुद्ध्या तु भगवान्वसिष्ठः कृतवांस्तदा । न तु सत्यव्रतोऽवुध्यदुपांशुव्रतमस्य वै तस्विोपरते यो यत्तुिरासीन्महामनाः । तेन द्वादश वर्षाणि नावर्षत्पाकशासनः तेन त्विदानीं बहुधा दीक्षां तां दुर्वलां भुवि । कुलस्य निष्कृतिः स्वस्य कृतेयं च भवेदिति ततो वसिष्ठो भगवान्पित्रा त्यक्तं न्यवारयत् । अभिषेक्ष्याम्यहं राज्ये पश्चादेनमिति प्रभुः ॥६२ ॥६३ ॥६४ ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ IIEE ॥१०० ॥१०१ ॥१०२ के समीप मृगों, शूकरों, महिषों एवं अन्यान्य वन्य जन्तुओं को मारकर उनके मांस को वह पकाता था ८१-६२ और मौनव्रत धारण कर पिता आज्ञा से वारह वर्ष तक वन में चाण्डालों के समीप निवास करने की दीक्षा ग्रहण कर निवास करता रहा। इधर पिता पुत्र दोनों की अनुपस्थिति में महर्षि वसिष्ठ पुरोहितों एवं उपाध्यायों के सहयोग से राजधानी अयोध्या, राज्य, एव अन्तःपुर की रक्षा करते रहे । कुमार सत्यव्रत अपने बाल्य स्वभाव के कारण तथा भावीवश महर्षि वसिष्ठ के ऊपर बहुत अधिक क्रुद्ध थे। क्योंकि पिता द्वारा घर से निकाले जाते समय जब वे रोते हुए राष्ट्र से बाहर निकल रहे थे तब महर्षि घसिष्ठ ने किसी कारण से उन्हें निवारित नही किया |१३-६६ | पाणिग्रहण अर्थात् विवाह संस्कार के मंत्रों को समाप्ति सातवें चरण में होती है, ( सप्तपदी के होने के बाद विवाह संस्कार सम्पन्न होता है) किन्तु उसी सप्तपदी के समाप्त होने के अवसर पर उस विदर्भ राज की स्त्री को बलपूर्वक छोन लिया था । महर्षि वसिष्ठ धर्म की मर्यादा को जानने वाले थे, अतः उन्होंने सत्यव्रत के उक्त कार्य का अनुमोदन नहीं किया, और मंत्रों की मर्यादा भ्रष्ट होने के भय से कुमार सत्यव्रत के ऊपर उन्होंने मन से क्रोध किया १९७-६८। महर्षि वसिष्ठ ने गुरु की मर्यादा रक्षा के ध्यान से सत्यव्रत के ऊपर वह कोप किया था, उधर कुमार सत्यव्रत उनके इस मोनावलम्बन का जो नगर से निकालते समय उन्होंने अपनाया था, तात्पर्य नही जान सके । महा मनस्वी चमिष्ठ जी ने सोचा कि पिता की मृत्यु हो जाने के बाद इन्द्र ने बारह वर्षों तक अराजकता से अघमं बढ़ जाने के कारण वृष्टि नहीं की इधर सत्यव्रत पिता की आज्ञा से बारह वर्ष तक वन में दीक्षा ग्रहण कर निवास कर रहा है पृथ्वी पर लोगों की जीविका कष्ट साध्य हो गई है, सत्यव्रत के आ जाने से उसके वंश का निस्तार तो हो ही जायगा ।६६-१०१ | ऐसा विचार कर महर्षि वसिष्ठ ने उस समय पिता द्वारा निष्कासित किये गये सत्यव्रत को निवारित किया और कहा कि तुम्हे