पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७९८

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सप्ताशीतितमोऽध्यायः ' यानि गीतानि प्रोक्तानि रूपेण तु विशेषतः । तत्तु सप्तस्वरं कार्य सप्तरूपं च कैशिकम् अङ्गदर्शन मित्याहुर्माने द्वे समके तथा । द्वितीयभावाचरणा मात्रा नाभिप्रतिष्ठिता उत्तरे च प्रकृत्येवं मात्रा तल्लीयते तथा । हन्तारः पिण्डको यत्र मात्रायां नातिवर्तते पादेनैकेन मात्रायां पादोनामतिवीरणा | संख्यायाश्चोपहननं तत्र यानमिति स्मृतम् द्वितीयं पादभङ्गं च ग्रहेणाभिप्रतिष्ठितम् । पूर्वमष्टतृतीये तु द्वितीयं चापरीतके अर्थेन पादसाम्यस्य पादभागाच्च पश्चके | पादभागं सपादं तु प्रकृत्यामपि संस्थितम् चतुर्थमुत्तरे चैव मद्रवत्या च मद्रके । मद्रके दक्षिणास्यापि यथोक्ता वर्तते कला पूर्वमेवानुयोगं तु द्वितीया बुद्धिरिष्यते । पादौ चाऽऽहरणं चास्मत्पारं नात्र विधीयते एकत्वमुपयोगस्य द्वयोर्यद्धि द्विजोत्तम । अनेकसमवायस्तु पताकारिणं स्मृतम् तिसृणां चैव वृत्तीनां वृत्तौ वृत्ता च दक्षिणा । अष्टौ सु समवायास्ते सौवेरी मुर्छना तथा -L ७७७ ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३ ॥४० ॥४१ ॥४२ ॥४३ ॥४४ ॥४५ है | ३४-३५१ जिन गीतों का वर्णन विशेष रूप से रूप के साथ किया गया है उनको सप्त स्वरों से युक्त करना चाहिये और केशिक को सप्तरूप में । इस प्रकार अंगदर्शन, दो मान और समक को कहा गया है । द्वितीय भावाचरण मात्रा उपयुक्त नहीं होती। और स्वभावत: उत्तर (मन्द्र) में मात्रा लीन हो जाती है। जहां हन्तार पिण्डक मात्रा से अधिक नही होता, और जिस मात्रा में एक चरण और पोन चरण रहते हैं अर्थात् जो मात्रा पौने दो चरण की होती है उसको अतिवीरण कहते हैं और उसमें संख्या के संघर्ष होने पर यान नामक अलंकार की उत्पत्ति होती है।३६-३६ | द्वितीय पाद भंग को ग्रह नाम से प्रतिष्ठित किया गया है । पहला, आठव, तीसरा और दूसरा अपर और अन्तिम, पाद साम्य के आधे भाग के साथ, पाँचों में पाद भाग, और सपाद पाद भाग प्रकृति में स्थिर रहते हैं। उत्तर, मद्रवती, मद्रक में चौथी कला तथा मद्रक में दक्षिण की उक्त कला रहती है |४० ४२ I पहले ही अनुयोग को द्वितीय बुद्धि इष्ट रहती है । इसके बाद दो पादों के और कलाओं के आकलन का विधान आचार्यों ने नहीं बताया है । द्विजोत्तम ! दोनों के उपयोग की एकता और अनेक कलाओं के एकत्र संगठन को पताकाहरिण कहते है । वृत्ति में तीन वृत्तियों की आवृत्ति दक्षिणा कही गई है । सौवीरी मूर्च्छना और वे आठ समवाय ये भी आवृत्त ( दुहराना ) होते फा०-६५