पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७९७

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७७६ वायुपुराणम् न पादे कुण्डले दृष्टे न कण्ठे रसना तथा । एवमेव ह्यलंकारो विपर्यस्तो विर्गार्हतः क्रियमाणोऽप्यलंकारो रागं यश्चैव दर्शयेत् । यथोद्दिष्टस्य मार्गस्य कर्तव्यस्य विधीयते लक्षणं पर्यवस्थापि वर्णिकाभिः प्रवर्तनम् । यातातथ्येन वक्ष्यामि मासोद्भवमुखोद्भवे त्रयोविंशत्यशोतिस्तु तेषामेतद्विपर्ययः । षड्जपक्षोऽपि तत्त्वादौ मध्यौ होनस्वरी भवेत् षड्जमध्यमयोश्चैव ग्रामयोः पर्ययस्तथा । मानो योत्तरमन्दस्य षडेवात्राविकस्य च स्वरालंप्रत्ययश्चैव सर्वेषां प्रत्ययः स्मृतः । अनुगम्य वहिर्गोतं विज्ञातं पञ्चदैवतम् गोरूपाणां पुरस्तात्तु मध्यमांशस्तु पर्ययः । तयोविभागो गोतानां लावण्यमार्गसंस्थितः अनुषङ्गं मयोद्दिष्टं स्वसारं च स्वरान्सरम् । पर्ययः संप्रवर्तेत सप्तस्वरपदक्रमम् गन्धारांशेन गोयन्ते चत्वारि मद्रकानि च । पञ्चमो मध्यमश्चैव धैवते तु निषादजैः ॥ षड्जर्षभैश्च जानीमो भद्रकेष्वेव नान्तरे द्वे चापरान्तिके विद्याद्धयशुल्लाष्टकस्य तु । प्राकृते वैणवैश्चैव गान्धारांशे प्रयुज्यते पदस्य तु त्रयं रूपं सप्तरूपं तु कैशिकस् । गान्धारांशेन कात्स्येंन पर्ययस्य विधिः स्मृतः ॥ एवं चैत्र क्रमोद्दिष्टो मध्यमांशस्य मध्यमः ॥२५ ॥२६ ॥२७ ॥२८ ॥२६ ॥३० ॥३१ ॥३२ ॥३३ ॥३४ ॥३५ देखी जाती । अर्थात् ये निन्दित हैं उसी प्रकार अनुपयुक्त स्थान में पड़े अलंकार भी अत्यन्त गर्हित माने गये है|२३-२५। जो गायक अलंकारों को यथा स्थान सन्निविष्ट कर के राग का प्रदर्शन करते हैं, वे संगीत के समु- चित कर्तव्य का पालन करते हैं |२६| अब इसके उपरान्त में पर्यव का लक्षण, वर्णिका के द्वारा उनका प्रवर्तन मासोद्भव और मुखोद्भव को यथार्थ रूप से वतला रहा हूँ |२७| पडज् स्वर के तेईस प्रकार के अलंकार विपर्यय के द्वारा अस्सी प्रकार के हो जाते हैं । षड्ज पक्ष भी तत्त्व के आदि में और होन स्वर हो जाता है |२८| षड्ज और मध्यम, एवं दोनो ग्राम का पर्यय, उत्तर मन्द तथा अविक का मान छः प्रकार का होता है | स्वर, अलङ्कार और प्रत्यय सव के प्रत्यय होते है । वहिर्गीतों के विश्लेषण से ये भी पञ्च दैवत हो जाने गये है ।२६-३०। गोरूपों के आगे मध्यमांश का स्थापन ही पर्यय है। इन दोनों का विभाग गीतों की सौन्दर्य - वृद्धि में सहायक होता है । मैंने स्वसार और स्वरान्तर का गोणरूप में वर्णन कर दिया। सप्त स्वर, और पदक्रम के अनुमार पर्यय का प्रयोग होता है। चारों मद्रक गान्धारा से गाये जाते हैं, पञ्चम धैवत में निषादज का प्रयोग होता है । मद्रकों में षड्ज और ऋषभ का ही प्रयोग होता है इतर का नही | ३१-३३॥ हयशुल्लाष्टक के अपर और अन्तिम दो भेद होते है । गान्धारांश में और प्राकृत में वेणु सम्बन्धी रागों का प्रयोग होता है | पद के तीन रूप होते हैं, केशिक के सात | सम्पूर्ण गान्धारांश से पर्यंय विधि सम्पन्न की जाती है। इसी प्रकार मध्यमांश के मध्यम पद के भो क्रमिक विधान का निर्देश किया गया