पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७९६

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सप्ताशीतितमोऽध्यायः संतारौ तौ तु संचार्यों कार्यं वा कारणं तथा । आक्षिप्रमवरोह्याषि प्रोक्षमद्यस्तथैव च द्वादशं च कलास्थानमेकान्तरगतं ततः । (प्रेङ्खोलितमलंकारमेवं स्वरसमन्वितम् स्वरसंक्रामकाच्चैव ततः प्रोक्तं तु पुष्कलम् । प्रक्षिप्तमेव फलया पादनीतरयो भवेत् द्विकलं वा यथा भूतं यत्तद्व्रासितमुच्यते । उच्चाराद्विस्वरारूढा तथा चाण्टस्वरान्तरम् यस्तु स्यादवरोहो वा तारतो मन्द्रतोऽपि वा । एकान्तरहिता होते तमेव स्वरमन्ततः मणिप्रच्छेदनो नाम चतुष्कलगणः स्मृतः । अलंकारा भवन्त्येते त्रिंशद्ये वै प्रकीर्तिताः ॥ वर्णस्थानप्रयोगेण कलामात्राप्रमाणतः संस्थानं च प्रमाणं च विकारी लक्षणं तथा । चतुविर्धामदं ज्ञेयमलंकारप्रयोजनम् यथाऽऽत्मनो ह्यलंकारो विपर्यस्तोऽतिगर्हितः । वर्णमेवाप्यलं कर्तुं विषमं ह्यात्मसंभवात् नानाभरणसंयोगाद्यथा नार्या विभूषणम् । वर्णस्य चैवालंकारो विपर्यस्तोऽतिगर्हितः ७७५ ॥१६ ॥१७ ॥१८ ॥१६ ॥२० ॥ २१ ॥२२ ॥२३ ॥२४ का संचारण करना चाहिये । इस प्रकार क्षिप्र गति तक अवरोह स्वर संचार करने से उसी प्रकार का प्रोक्षमद्य अलंकार होता है |१६| तदनन्तर एकान्तर गत द्वादश कला स्थान है । इस प्रकार के स्वर संयुक्त एक प्रेखोलित अलङ्कार होता है । पुनः कुछ अधिक स्वरों के संक्रमण होने के कारण ही वह पुष्कल कहा जाता है । मात्रा के प्रक्षेप और पाद संक्रमण होने से जो द्विकलात्मक अलङ्कार होता है वह घ्रासित कहा जाता है | स्वरोच्चार और विस्वर के संयोग से अष्टस्वर का अन्तर हो जाता है |१७-१६। तार और मन्द्र के क्रम से जो स्वरावरोह होते हैं, वे अन्त में उसी स्वर के एक अन्तरा के बाद उपयुक्त माने जाते है | मणिप्रच्छेदन नामक गण चार कलाओं वाला कहा जाता है । वर्ण स्थान और प्रयोग विशेष के अनुसार कलामात्र प्रमाण के अनुसार अलंकार निश्चित किये गये हैं। इस प्रकार कहे गये तीसों अलंकारों का वर्णन कर चुका । संस्थान, प्रमाण, विकार और लक्षण - ये चार अलंकारों के प्रयोजन जान चाहिये ।२०-२२। जिस प्रकार मनुष्य के अपने अलंकार योग्य स्थान पर न पड़कर अथवा अति निम्न कोटि के होकर शरीर शोभा को हानि करते है, वृद्धि नहीं करते उसी प्रकार ये संगीत के अलंकार भी अपने योग्य स्थान पर पड़कर तथा निकृष्ट कोटि के होकर वर्णों की शोभा बढ़ाने में सशक्त नही होते, इसलिए स्त्रियों के आभूषण की भांति इन संगीतालंकारों का यथा स्थान सन्निवेश करना आवश्यक होता है । जिस प्रकार विविध अलंकारो से अलंकृत होने पर स्त्रियो का सौन्दर्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार इन वर्गों के अलंकारों से अलंकृत होकर संगीत की शोभा बढ़ जाती है। इनके यथा स्थान विभूषित न होने की बड़ी निन्दा की गई है। जिस प्रकार पैर में बंधे हुए कुण्डल नहीं देखे जाते और कण्ठ में करधनी नही +

  • धनुश्चिह्नान्तर्गत ग्रन्थो ग. पुस्तके नास्ति ।