पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७९३

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७७२ वायुपुराणम् ॥६१ ॥६२ ( * अहोनां सूर्छना ह्येषा वरुणश्चात्र देवता | + जलाधिपेन दृष्टा स्यादप्सु लीला तथैव च शकुन्तकानां कृत्वा च उपगायन्ति किंनराः | उत्तमा मुर्छना तस्मात्पक्षिराजोऽत्र देवता [ x मनो मन्दयती तेषां मूर्छना सन्दनीत्यपि | ऋषीणां स्नातकानां च विश्वे देवात्र (स्तु ) दैवतम् ॥ अश्वा इवानमन्ते वा रमन्ते वाऽत्र वाजिनः । अश्वक्रान्तेति नित्या वै अश्विनी वाऽत्र दैवतम्] ॥६४ ÷ गान्धाररागशब्देन गां धारयतेऽर्थतः । तस्माद्विशुद्ध गान्धारी गन्धर्वश्चाधिदैवतम् गान्धारानन्तरं गत्वा सृष्टेयं मूर्छना यतः । तस्मादुत्तरगान्धारी वसवश्चात्र देवताः सेयं खलु महाभूता पितामहमुपस्थिता । षड्जेयं मूर्छना तस्मात्स्मृता ह्यनलदेवता) दिव्येयं चाऽऽयता तेन मन्दषष्ठा च मूर्छने । निवृत्तगुणनामानं पञ्चमं चात्र दैवतम् ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ मूर्छना को सुनकर चल फिर नहीं सकते, और ब्रह्मा द्वारा मृतक के समान हो जाते हैं, वह अहिमूर्छना कही जाती है, उसके अधिदेवता वरुण है । जलराशि में अवस्थित इस मूर्छना को सर्वप्रथम जलाधिप वरुण ने देखा था ।६०-६१ | किन्नर गण पक्षियों के स्वर का अनुकरण कर जिमका गान करते हैं, उस परमश्रेष्ठ मूर्छना के अधिदेवता पक्षिराज गरुड़ है। ऋषियों और विद्या में पारंगत स्नातकों के भी मन को जो मन्द कर देती है वह मन्दनी नामक मूर्छना है, उसके अधिदेवता विश्वेदेवगण हैं। अश्व के समान तीव्र गति से चलने अथवा जिसको सुनकर अश्वगण विहार ( प्रसन्न होते हैं) करते हैं उस स्थिर मूछना का अश्वक्रान्ता नाम हैं, उसके अधिदेवता दोनों अश्विनीकुमार हैं |६२-६४। गान्धार राग के शब्द से गो ( पृथ्वी ) को धारण करते हैं, (अर्थात् इसकी स्वरमहिमा से पृथ्वी की स्थिति शक्ति की वृद्धि होती है) इस निरुक्ति से इस मुर्छना का नाम विशुद्ध गान्धारी कहा जाता है, इसके अधिदेवता गन्धवं है । गान्धार के अनन्तर इस मुर्छना की सृष्टि हुई है, अतः इसे उत्तर गान्धारी कहते हैं, इसके अधिदेवता वसुगण हैं । षडज् नामक यह मूछना सबसे प्रथम पितामह के समीप उपस्थित हुई अतः यह सबसे अधिक महत्त्वशालिनी है, इसके अधिदेवता अनल कहे जाते हैं । ६५-६७। यह मन्दषष्ठा नामक मूछना बहुत विस्तृत है, इसके प्रभाव दिव्य है, इसके गुणों की धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थो ग. पुस्तके नास्ति । + नास्तीदमधं क. पुस्तके | X धनुश्चिह्नान्तर्गंतग्रन्थः क पुस्तके नास्ति | ÷ एतर्धस्थान इदमधं गांधारयते शब्देन गांधारेस्यथ वा पुनरिति ङ. पुस्तके |