पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७९४

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सप्ताशीतितमोऽध्यायः ७७३ पूर्णा सप्त स्वरा ह्येवं मूर्छनाः संप्रकीर्तिताः । नानासाधारणाश्चैव षडेवानुविदस्तथा ॥६६ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते वैवस्वतमनुवंशगान्धर्वमूर्छनालक्षणकथनं नाम षडशीतितमोऽध्यायः ॥८६॥ ताशीतितमोऽध्यायः गीतालंकारनिर्देशः पूर्वाचार्यंमतं बुद्ध्वा प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वंशः । त्रिशतं वै अलंकारास्तान्मे निगदतः शृणु अलंकारास्तु वक्तव्याः स्वः स्वैर्वर्णैः प्रहेतवः । संस्थानयोगैश्च तथा पदानां चान्ववेक्षया वाक्यार्थपदयोगार्थैरलंकारस्य पूरणम् । पदानि गीतकस्याऽऽहुः पुरस्तात्पृष्ठतोऽथवा स्थानानि त्रीणि जानीयादुरः कण्ठः शिरस्तथा । एतेषु त्रिषु स्थानेषु प्रवृत्तो विधिरुत्तमः ॥१ ॥२ ॥३ ॥४ महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता, इसके अधिदेवता पञ्चम हैं । इस प्रकार सातों स्वरों, समस्त मूर्छनाओं, (?) एवं उनके छः साधारण भेदों का वर्णन मैं कर चुका ६८-६९ श्री वायुमहापुराण में वैवस्वतमनुवंश गान्धर्व मुर्छना लक्षण कथन नामक छियासीवां अध्याय समाप्त ॥८६॥ अध्याय ८७ गीतों के अलंकारों का वर्णन अब इसके उपरान्त पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार तीन सौ संगीत के अलंकारों का क्रम पूर्वक वर्णन मैं कर रहा हूँ, सुनिये । अपने-अपने वर्णों एवं पद समूहों के विशेष संयोग से संगठित होने को ही अलंकार कहना चाहिये ।१-२। पद एवं वाक्य के योगार्थ के द्वारा अलंकार की पूर्ति होती है । गीत के पद समूह पूर्व अथवा पीछे दोनों स्थानों में विन्यस्त होते हैं —ऐसा लोग कहते हैं |३| गीतों के स्थान तीन होते हैं, उर. थल, कण्ठ तथा शिर | इन्हीं तीन स्थानों में प्रारम्भ किया गया स्वर उत्तम होता है |४| प्रकृति गत वर्णो की संख्या चार है, इनका