पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७९२

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षडशीतितमोऽध्यायः तथा पञ्चदशेच्छन्ति गान्धारग्रामसंस्थितान् । ससौवीरा तु गान्धारी ब्रह्मणा ह्युपगीयते उत्तरादिस्वरस्यैव ब्रह्मा वै देवताऽत्र च | हरिदेशसमुत्पन्ना हरिणास्या व्यजायत ॥ मूर्छना हरिणास्यैव अस्या इन्द्रोऽधिदैवतम् करोपनीतवितता मरुद्भिः स्वरमण्डले | सा फलोपनता तस्मान्मारतश्चात्र दैवतम् मरुदेशसमुत्पन्ना मूर्छना शुद्धमध्यमा | मध्यमोऽत्र स्वरः शुद्धो गन्धर्वश्चात्र देवता मृगैः सह संचरते सिद्धानां मार्गदर्शने । यस्मात्तस्मात्स्मृता मार्गी मृगेन्द्रोऽस्याश्च देवता सा चाऽऽश्रमसमायुक्ता अनेकान्यौरवान्नवान् । मुर्छना योजना होषा रजसा रजनी ततः ॥ ताल उत्तरमन्द्रांश: षड्जदैवतकां विदुः | तस्मादुत्तरतालं च प्रथमं स्वायतं विदुः ॥ तस्मादुत्तरमन्द्रोऽयं देवताऽस्य ध्रुवो ध्रुवम् आयामादुत्तरत्वाच्च धैवतस्योत्तरायणः । स्यादियं मुर्छना ह्येवं पितरः श्राद्धदेवताः शुद्धषड्जस्वरं कृत्वा यस्मादग्नि महर्षयः । उपतिष्ठन्ति तस्मात्तं जानोयाच्छुद्धषजिकम् यः सतां मूर्छनां कृत्वा पञ्चमस्वरको भवेत् | यक्षोणां मूर्छना सा तु याक्षिका मुर्छना स्मृता नागदृष्टिविषा गीता नोपसर्पन्ति मूर्च्छनाम् । भवन्तीव ह्ता होते ब्रह्मणा नागदेवताः ७७१ ॥५० ॥ ५१ ॥५२ ॥५३ ॥५४ ॥५५ ॥५६ ॥५७ ॥५८ ॥५९ ॥६० मध्यमग्राम बीस हैं, पडग्रामों की संख्या चौदह है, गान्धारग्राम को लोग पन्द्रह मानते है । भगवान् ब्रह्मा सौवीर के साथ गान्धारी का गान करते हैं ।४१-५०१ उत्तरादि स्वरो के अधिदेवता ब्रह्मा हो माने गये हैं, हरिदेश में उत्पन्न मूछना हरिणास्पा के नाम से प्रसिद्ध है, इसके अघिदेवता इन्द्र हैं। समस्त स्वर मण्डल में मरुतों द्वारा प्रसारण पूर्वक ग्रहण किये जाने से कलोपनता के मारुत अधिदेवता माने गये हैं। मरुदेश में समुत्पन्न मूर्छना शुद्ध मध्यमा कही जाती है। इसमें शुद्ध स्वर मध्यम है, इसके अधिदेवता गन्धर्व हैं । सिद्धों का मार्ग दिखलाते समय मृगों के साथ विचरण करने के कारण मूछना मार्गी नाम से प्रसिद्ध हुई, इसके अधिदेवता मृगेन्द्र हैं |५१-५४॥ यह् मर्छना अनेक स्वरों की आश्रयभूत होने के कारण अनेक पुरों में गाये जानेवाले स्वरों में प्रयुक्त होती है । (?) यह रजनी नामक मूर्छना रजोगुण से संयुक्त करनी चाहिये । (?) उत्तर मन्द्रांश ताल का अधिदेवता पडज् है | उसका उत्तरवर्ती ताल भी प्रथम का अनुयायी माना जाता है । इसीलिए उसका नाम भी उत्तरमन्द्र कहा जाता है, उसके अधिदेवता ध्रुव हैं ।५५-५६ । विस्तृत और उत्तरवर्ती होने के कारण धैवत की मूछना उत्तरायण है, इसके अविदेवगण श्राद्ध में पूजित होनेवाले पितरगण हैं। महपियों ने शुद्ध पडज् स्वर द्वारा अग्नि की उपासना की थी, इसलिये उस स्वर को लोग शुद्ध पड्जिक नाम से जानते हैं ।५७-५८। पश्चम स्वर की मूछना सत्पुरुषों के मन को भी मुच्छित कर देती है, यह यक्षों की पत्नियों की सूर्छना है, इसीलिये उसका नाम भी याक्षिकी मूछेंना प्रसिद्ध है | ५६ | दृष्टि से ही विष विकीरित करनेवाले नागगण जिस