पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७७९

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७५८ घायुपुराणम् सैवमुक्ता तदा पित्रा नियुक्ता च पुनः पुनः । वर्षाणां तु सहस्रं वै वसति स्म पितुर्ग है भर्तुः समीपं गच्छ त्वं नियुक्ता च पुनः पुनः । अगमवडवा सुत्वाऽऽच्छाद्य रूपमनिन्दिता || उत्तरान्सा कुरूम्गत्वा तृणान्यथ चचार सा द्वितीयायां तु संज्ञायां संज्ञेयमिति चिन्त्यताम् | आदित्यो जनयामास पुत्रावादित्यवर्चसौ पूर्वजस्य मनोस्तुल्यौ सादृश्येन तु तौ प्रभुः । श्रुतश्रवं तु धर्मज्ञं श्रुतफर्माणमेव च श्रुतश्रवा मनुः सोऽपि सावणिर्वे भविष्यति । श्रुतकर्मा नु विज्ञेयो ग्रहो वै यः शनैश्चरः मनुरेवाभवत्स वै सावर्ण इति बुध्यते । संज्ञा तु पार्थिवो सा वै स्वस्य पुत्रस्य वै तदा चकाराभ्यधिकं स्नेहं न तथा पूर्वजेषु वै । मनुस्तच्चाक्षमत्सर्वं यमस्तद्वै न चाक्षमत् बहुशो यस्य मानस्तु (अवमानितश्च बहुशः) सापत्न्यादतिदुःखितः । तां वे रोषाच्च बाल्याच्च भाविनोऽर्थस्य वै बलात् पदा संतर्जयामास संज्ञां वैवस्वतो यमः | सा शशाप ततः क्रोधात्सवर्णा जननी यसम् पदा तर्जयसे यस्मात्पितृभार्यां यशस्विनीम् । तस्मात्तवैष चरणः पतिष्यति न संशयः ॥४७ ॥४८ ॥४६ ॥५० ॥५१ ॥५२ ॥५३ ॥५३ ॥५४ ॥५५ - अपने पिता के घर में ही निवास करती रही । 'तुम अपने पति के पास चली जाओ - ऐसा बारम्बार कहने पर उस अनिन्दनीय चरित्रशालिनी ने अपने स्वरूप को छिपाने के लिए वडवा का रूप धारण किया और पिता के घर से प्रस्थान किया। उत्तर कुरु प्रदेश में जाकर तृणों को चर कर जीविका चलाने लगी १४७-४८। इधर उस नकली संज्ञा में सूर्य ने असली संज्ञा की भावना से दो अपने हो समान परम तेजस्वी पुत्रों को उत्पन्न किया । वे दोनों पुत्र भी अपने बड़े भाई मनु के समान ही स्वरूपवान् थे, उनकी भी उसी प्रकार प्रभुता थी। उन दोनों पुत्रों के नाम, श्रुतश्रवा और श्रुतकर्मा थे, जो परमधर्मज्ञ थे। इनमें श्रुतश्रवा नामक जो पुत्र था, वह भी भविष्य में सार्वणि मनु नाम से प्रसिद्ध होगा, श्रुतकर्मा नामक जो दूसरा पुत्र था, उसे शनैश्चर ग्रह नाम से जानिये । ४९ -११। वह भी मनु होगा और सार्वणि नाम से विख्यात होगा । वह मृण्मयी संज्ञा अपने पुत्र को बहुत अधिक स्नेह करती थी, उतना प्रेम भाव उन बड़ी सन्ततियों में नहीं रखती थी । उसके इस मनोभाव को मनु सव प्रकार से सहन कर लेते थे, पर यमराज को यह कतई नापसन्द था । सपत्नी ( सौत ) पुत्र होने के कारण जब अपमान की मात्रा बहुत अधिक हो गई तो वे अतिशय एक दिन बालस्वभाषवश अथवा भावी वश अतिशय क्रुद्ध होकर सूर्य पुत्र यमराज ने संज्ञा से ठोकर लगा दी । समान वर्णवाली माता ने इस दुर्व्यवहार से अतिशय क्रुद्ध होकर यमराज को यह शाप दे दिया — यतः अपने पिता की स्त्री ( माता) को, जो अपने सात्त्विक बल से परम यशस्विनी है, पैर से ठोकर मार रहे हो, अतः तुम्हारा यह पैर गिर पड़ेगा - इसमे सन्देह नही |५२-५५१ दुःखित हुए । को अपने पैर