पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७७८

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

चतुरशीतितमोऽध्याया तेजस्त्वभ्यधिकं तस्य नित्यमेव विवस्वतः । येनापि तापयामास त्रोल्लोकान्कश्यपात्मजः त्रीण्यपत्यानि संज्ञायां जनयामास वै रविः । द्वौ सुतौ तु महावीय कन्यां कालिन्दिमेव च मनुर्विवस्वतो ज्येष्ठः श्राद्धदेवः प्रजापतिः । ततो यमो यमी चैव यमजौ संबभूवतुः शातवर्णं तु तद्रूपं दृष्ट्वा संज्ञा विवस्वतः । असहन्ती स्वकां छायां सवर्ण निर्ममे पुनः महीमयी तु सा नारी तस्याश्छायासमुद्गता | प्राञ्जलिः प्रयता भूत्वा पुनः संज्ञामभाषत वदस्व किं मया कार्यं सा संज्ञा तामथाब्रवीत् । अहं यास्यामि भद्रं ते स्वमेव भवनं पितुः त्वयेह भवने मह्यं वस्तव्यं निर्विशङ्कया | इमौ च बालकौ मह्यं कन्या च वरवर्णनो भनें वै नैवमाख्येयमिदं भगवते त्वया । एवमुक्ताऽब्रवीत्संज्ञां संज्ञा या पार्थिवी तु सा आकेशग्रहणादेवि आशयं नैव कर्हिचित् । आख्यास्यामि मतं तुभ्यं गच्छ देवि स्वमालयम् समाधाय च तां संज्ञा तथेत्युक्तां तया च सा | त्वष्टुः समीपमगमद्व्रीडितेव तपस्विनी ॥४३ ॥४४ ॥४५ पिता तामागतां दृष्ट्वा क्रुद्धः संज्ञामथाब्रवीत् । भर्तुः समीपं गच्छ त्वं मा जुगुप्स दिवाकरम् ॥४६ ७५७ ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३ ॥४० ॥४१ ॥४२ - मार्तण्ड का तेज नित्य अधिकाधिक बढ़ने लगा। जिसके द्वारा उन्होंने तीनों लोकों को खूब तपाया । उन्होंने संज्ञा नामक अपनी पत्नी से तीन सन्ततियाँ उत्पन्न की, जिनमें दो महाबलशाली पुत्र थे, तीसरी कालिन्दी नामक कन्या थी | ३६-३७॥ सूर्य के ज्येष्ठ पुत्र श्राद्धदेव प्रजापति मनु थे। उनसे छोटे यमराज और यमी- ये दोनों जुड़वा उत्पन्न हुए । विवस्वान् (सूर्य) के उस परम तेजोमय रूप एवं चमकने वाले वर्ण को देखकर संज्ञा उसे सहन करने में असमर्थ हुई, और अपनी ही भांति अपना एक प्रतिबिम्ब निर्माण किया । तदनन्तर मिट्टी की बनी हुई और उसी के समान सुन्दरी वह नारी हाथ जोड़कर विनम्रभाव से उसके सम्मुख उपस्थित हुई और फिर संज्ञा से बोली। 'बतलाइये मैं क्या करूँ ?" संज्ञा ने उससे कहा, भद्रे ! मैं अपने पिता के घर जा रही हूँ, तुम बिना किसी शंका के मेरे इस घर में निवास करो |३८-४१३। ये दो मेरे बालक और यह एक सुन्दरी कन्या है, ( इनकी देखरेख करना) इस भेद की बात को कभी भी हमारे तेजस्वी पतिदेव से मत कहना |' संज्ञा के ऐसा कहने पर उस मृण्मयी संज्ञा ने कहा, 'हे देवि ! शिर के केशों के पकड़े जाने तक तो मैं इस तुम्हारे गुप्त भेद की चर्चा कभी भी किसी से भी नहीं करूंगी, तुम अपने अभीष्ट स्थान को जाओ । इस प्रकार अपनी छाया रूपिणी नारी से ऐसी बातें कर अपने पिता विश्वकर्मा के पास वह तपस्विनी बड़ी लज्जा के साथ प्रस्थित हुई। अपने घर पर आई हुई संज्ञा को देखकर पिता (विश्वकर्मा ) परम क्रुद्ध होकर बोले, 'तुम अपने पति के पास जाओ, दिवाकर के प्रति अपने मन में किसी प्रकार की घृणित भावना मत करो ।४२-४६। पिता के ऐसा कहने पर, और बारम्बार आग्रहपूर्वक कहने पर भी वह एक सहस्रवर्षी