पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७६७

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७४६ वायुपुराणम् ॥७२ भ्रश्यते सत्फलात्तस्माद्दाता यस्य तु बालिश: । यो वेष्टितशिरा भुङ्क्ते यो भुङ्क्ते दक्षिणामुखः ॥७१ सोपानत्कश्च यो भुङ्क्ते यच्च दद्यात्तिरस्कृतम् । सर्वं तदसुरेन्द्राणां ब्रह्मा भागमकल्पयत् श्वानश्च यातुधानाश्च नावेक्षेरन्कथंचन | तस्मात्परिवृति दद्यात्तिलेश्चान्ववकीरयन् राक्षसानां तिलाः प्रोक्ता : शुनां परिवृतिस्तथा । दर्शनात्सूकरो हन्ति पक्षपातेन कुक्कुटः न प्रीणाति पितॄन्देवास्स्वर्गं न च स यच्छति ॥७३ ॥७४ ॥७५ नदीतीरेषु रम्येषु सरित्सु च सरस्सु च । विविक्तेषु च नोयन्ते दत्तेनेह पितामहाः ।।७६ ॥७७ न चाक्षु पातयेज्जातु न युक्तो वाचमोरयेत् । न त्र कुर्वीत भुञ्जानो ह्यन्योन्यं मत्सरं तदा अपसव्ये कृते तेन विधिवद्दर्भपाणिता | पित्र्यसानिधनं कार्यमेवं प्रोणाति वै पितॄन् अनुमत्याऽऽवितो विप्राग्नौ कुर्यायथाविधि | पितॄणां निर्वपेद्भूमौ सूर्पे वा दर्भसंस्तरे ॥७८ ॥७६ शुभकर्म फलों से वंचित हो जाता है । जो शिर को बांधकर भोजन करता है, जो दक्षिण दिशा की ओर मुख करके भोजन करता है, जो जूता पहिनकर भोजन करता है, जो तिरस्कार पूर्वक दान करता है, उनके समस्त कर्मों के फल को भगवान् ब्रह्मा असुरेन्द्रों के लिए कल्पित करते है |७०-७२। श्राद्ध के सम्पन्न होते समय उसे श्वान और यातुधान किसी प्रकार भी न देखने पावे, इसके लिए चारो तरफ से ओट करने के लिए परदा लगा देना चाहिये और चारो ओर तिलो का विकिरण करना चाहिये । राक्षसों को निवारित करने के लिए तिल और कुत्तों को निवारित करने के लिए परदा या दूसरे किसी प्रकार का घेरा बना देने की बात कहो जाती है | शूकर केवल देख लेने से ही श्राद्ध के फल को नष्ट कर देता है, मुरगा अपने पंखो के फड़फड़ाने से उसके फल को नष्ट कर देता है, रजस्वला स्त्री के स्पर्श से तथा क्रोध पूर्वक दान कर से श्राद्ध के फलों का विनाश हो जाता है । इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने द्वारा किये जाने वाले श्राद्ध के कार्यो को अथवा हवनादि को मित्रों द्वारा सम्पन्न कराता है, उसके कार्य पितरों और देवताओं को सन्तुष्ट नहीं करते और वह स्वर्गलोक को नहीं जाता |७३-७४ | मुरम्य नदियों के किनारों पर छोटी-छोटी सरिताओं एवं सरोवरों के मनोहर एकान्त तट पर किये गये श्राद्धादि कार्य से पितामहगण तृप्त होते हैं |७६ | श्राद्ध करते समय न तो कभी आंसू गिराना चाहिये न किसी साधारण वात-चीत में सम्मिलित होना चाहिये, न भोजन करते हुए हो श्राद्ध करना चाहिये, एक दूसरे के प्रति मत्सर अथवा ईर्ष्याभाव भी नहीं प्रकट करना चाहिये ७७॥ अपसव्य होकर विधिपूर्वक हाथ में कुशा लेकर अपने जीवन पर्यन्त मनुष्य को पितरों का श्राद्ध दि कार्य सम्पन्न करना चाहिये । इस प्रकार श्राद्ध के करने से पितरगणो की तृप्ति होती है । सर्वप्रथम (गुरुजनों या ब्राह्मणों को अनुमति प्राप्तकर अग्नि मे विधिपूर्वक आहुति करे | पितरों के उद्देश से दिया जाने वाला पदार्थ पृथ्वी पर सूप पर अथवा कुश के विछावन पर रखना चाहिये |७८-७९| बुद्धिमान् पुरुष शुक्लपक्ष में