पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७६६

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त्र्यशीतितमोऽध्याय! पित्रा विवदमानच यस्य चोपपतिगृ है | अभिशस्तस्तथा स्तेनः शिल्पैर्यश्नोपजीवति सूचकः पर्वकारी व यस्तु मित्रेषु द्रुह्यति | गणयाचनकश्चैव नास्तिको वेदवर्जितः उन्मत्तः पण्डकशठौ भ्रूणहा गुरुतल्पगः | भिषक्जीवः प्रैषणिकः परस्त्रीं यश्च गच्छति विक्रीणाति च यो ब्रह्म व्रतानि च तपांसि च | नष्टं स्यान्नास्तिके दत्तं कृतघ्ने चैव शंसके यच्च वाणिजके चैव नेह नामुत्र तद्भवेत् । निक्षेपहारिणे चैव कितवे वेदनिन्दके तथा वाणिजके चैव कारुके धर्मवजिते । निन्दन्क्रीणाति पण्यानि विक्कीच प्रशंसलि अनृतस्य समावासो न वणिक्श्राद्धमर्हति । भस्मनीव हुतं हव्यं दत्तं पौनर्भदे द्विजे षष्टि काणः शतं पण्डः श्विनी यावत्प्रपश्यति । पापरोगी सहस्रस्य दातुर्नाशयते फलस् ७४५ ॥६३ ॥६४ ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ ॥६६ ॥७० कूटनीतिज्ञ, पिता के साथ विवाद करने वाला, जिसके घर में कोई दूसरा गृहस्वामी हो, लम्पट, चोर, शिल्पजीवी, चुगुलखोर, धन के लोभ से विना पर्व के ही अमावास्या आदि पर्वो के दिन सम्पन्न होने वाली सत्क्रियाओं का अनुष्ठान करने वाला, मित्रों के साथ द्रोह करने वाला, समूह बनाकर याचना करने वाला, नास्तिक, वेदविहीन, उन्मत्त, हिजड़ा, दुष्ट प्रकृति वाला, गर्भ हत्या करने वाला, गुरु की शय्या पर शयन करने वाला, वैद्यक से जीविका चलाने वाला, दूत का कर्म करने वाला, परस्त्रीगामी, जो ब्रह्म, (विद्या) व्रत एवं तपस्या को बेंचता है, इन सबको दान करने से दान का समस्त फल नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार नास्तिक कृतघ्न, एवं निन्दक को दान करने से फल का नाश हो जाता है | ६१-६६ । वाणिज्य व्यवसाय में लगे हुए ब्राह्मण को जो कुछ दिया जाता है वह न तो इस लोक मे फल देता है न पर लोक में । दूसरे के रखे हुए निःक्षेप (गिरवी ) को ले लेनेवाले धूर्त एवं वेदनिन्दक को दिये गये दान का भी यही फल होता है । वाणिज्य कर्म मे प्रवृत्त, कारीगर, धर्महीन, एवं ऐसे लोग जो दूसरे को अच्छी वस्तु की खरीदते समय निन्दा करते हों और अपनी खराब वस्तु की वेचते समय प्रशंसा करते हो - इन सबों को भी दान देने यही फल होता है। इसी प्रकार मिथ्या भाषण करनेवाला वणिक् व्यवसाय में प्रवृत्त द्विज भी श्राद्ध के योग्य नहीं है। पोनर्भव ब्राह्मण को दिया गया दान भस्म ( राख ) पर दी गई आहुति के समान व्यर्थ हूं । ६७-६६। काना व्यक्ति साठ, नपुंसक सौ, श्वेतकुष्ठ ग्रसित जितने भी कर्मों को देखता है, तथा पाप के कारण रोगी, एक सहस्र दाता के सत्कर्मों के फलों को नष्ट कर देता है । मूर्ख व्यक्ति को दान करनेवाला १. पति से परित्यक्त अथवा निधवा यदि अपनी इच्छा से पर पुरुष द्वारा पुत्र उत्पन्न करती है तो यह पौनर्भव कहा जाता है । फा०-६४