पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७६५

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वायुपुराणम् ब्रह्मदेयसुतश्चैव छन्दोगो ज्येष्ठसामगः | पुण्येषु येषु तीर्येषु अभिषेककृतव्रताः मुख्येषु येषु सत्रेषु भवन्त्यवभृथप्लुताः । ये च सद्योव्रता नित्यं स्वकर्मनिरताच ये ॥ अनोधनाः शान्तिपरास्तान्वं श्राद्धे निमन्त्रयेत् ७४४ ॥५४ ॥५५ ॥५७ ॥५८ ॥५६ [+ये चापि नित्यं दशसु सुकृतेषु व्यवस्थिताः । स्वकर्मनिरता नित्यं ताञ्चद्धेषु निमन्त्रयेत् ॥५६ एतेषु दत्तमक्षय्यमेते वै पङ्क्तिपावनाः । श्रद्धया ब्राह्मणा ये तु योगधर्ममनुव्रताः धर्मा अमवरिष्ठास्ते हव्यकव्येषु ते वराः | जयोऽपि पूजितास्तेन ग्रह्मविष्णुमहेश्वराः पितृभिः सह लोकाश्च यो होतात्पूजयेन्नरः | पवित्राणां पवित्रं च मङ्गलानां च मङ्गलम् प्रथमः सर्वधर्माणां योगधर्मो निगद्यते । अपाङ्क्तेयांरतु वक्ष्यामि गदतो मे निबोधत कितनो मद्यपो यक्ष्मी पशुपालो निराकृतिः | ग्रामप्रेष्यो वाधुषिको गायनो वणिजस्तथा अगारवाही गरदः कुण्डाशी सोमविक्रयी | समुद्रयायी दुश्चर्मा तैलिफः कूटकारकः ॥६० ॥६१ ॥६२ उपासक वेदो के छहो अंगों के जानने वाले, निमुपणं, ब्रह्मज्ञानियों का पुत्र छन्दोग, ज्येष्टसाम को जानने वाले, जितने भी पुण्य तीर्थ है, उनमें प्रतोपरान्त अभिषेक करने वाले मुख्य मुख्य यज्ञों में अवभृव स्नान करने वाले, शोघ्र ही किसी व्रत से निवृत्त होने वाले अपने-अपने कर्मों में निरत रहने वाले, क्रोधरहित तथा शान्तिपरायण जो ब्राह्मण हों उन्हें श्राद्ध में निमन्त्रित करना चाहिये ५२-५५३ जो सर्वदा दसों शुभ कर्मों मे व्यवस्थित रहकर जीवन यापन करने वाले हैं तथा अपने कर्मों में निरत रहते हैं, उन्हें श्राद्ध मे निमन्त्रित करना चाहिये |५६। इन सत्पात्रो मे दिया गया दान अक्षय फलदायी होता है - ये उपर्युक्त ब्राह्मण पंक्तिपावन । है | जो योगधर्म में अनुरक्ति एवं श्रद्धा रखने वाले ब्राह्मण है, वे वर्णाश्रम धर्म को मर्यादा मानने वाली सभी जातियों में श्रेष्ठ है, और हव्य कव्य - सभी कार्यो मे श्रेष्ठ है । जिसने ऐसे ब्राह्मणों की पूजा की, उसने ब्रह्मा, विष्णु, महेश —-तीनों देवताओं की पूजा को । जो मनुष्य ऐसे सर्वगुण सम्पन्न ब्राह्मणो की पूजा करता है, वह पितरो के साथ समस्त लोकों की पूजा करता है | योगधर्म सभी पवित्र पदार्थों से अधिक पवित्र एवं सभी मंगलदायी वस्तुओं से अधिक मंगलदायी है। सभी धर्मों में वह प्रथम कहा गया है। जब इसके उपरान्त जो अपंक्तिपावन ब्राह्मण है, उन्हे मैं बतला रहा हूँ, सुनिये १५७-६०१ घूर्त, शरावी, यक्ष्मारोग ग्रस्त, पशुओं की पालना करने वाला, कुरूप, ग्राम में दूत या सेवक का काम करने वाला, व्याज से जीविका चलाने वाला, गायक, व्यवसा, किसी का स्थान जलाने वाला, विष देने वाला, छिनाले से उत्पन्न होने वालों का अन्त खाने वाला, सोमरस का विक्रय करने वाला, समुद्र यात्रा करने वाला, दुष्ट चमडे वाला, तेल का व्यवसायी,

  • इदमधं नास्ति क. पुस्तके |