पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७६२

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व्यशीतितमोऽध्यायः मतङ्गे स पुनदृष्ट्वा बुद्धा नारायणं तथा । श्राद्धं कृत्वा विधानेन कुलकोटोः समुद्धरेत् यदि पुत्रो गयां गच्छेत्कदाचित्कालपर्ययात् | तानेव भोजयेद्विप्रान्ब्राह्मणा ये प्रकल्पिताः अमानुषतया विप्रा ब्राह्मणा ये प्रकल्पिताः । तेषु तुष्टेषु संतुष्टाः पितृभिः सह देवताः न विचार्यं कुलं शीलं विद्यां च तप एव च । पूजितैस्तैस्तु राजेन्द्र मुक्तिं प्राप्नोति मानवः ततः प्रवर्तयेच्छ्राद्धं यथाशक्तिबलावलम् | कामान्स लभते दिव्यान्मोक्षोपायं च विदन्ति सवर्णा जातयो मित्रा बान्धवाः सुहृदश्च ये । तेभ्यो भूप गयाकूपे पिण्डा देया विधानतः तेsपि यान्ति दिवं सर्वे पिण्डदा इति नः श्रुतम् | अज्ञातनामगोत्राणां मन्त्र एष प्रकीर्तितः पितृवंशे समुत्पन्ना मातृवंशे तथैव च | गुरुश्वशुरवन्धूनां ये चान्ये वान्धवास्तथा ये मे कुले लुप्तपिण्डाः पुत्रदारविवर्जिताः । विरूपा आमगर्भाश्च ज्ञाताज्ञाताः फुले मम कियालोपगता ये चान्ये गर्भसंस्थिताः । तेभ्यो दत्तो मया पिण्डो ह्यक्षय्यमुपतिष्ठताम् आत्मनस्तु महाबुद्धे गयायां तु तिर्लंविना | पिण्डनिर्व॑पणं कुर्यात्तथा चान्येऽत्र गोत्रजाः ७४१ ॥२४ ॥२५ ॥२६ ॥२७ ॥२८ ॥२६ ॥३० ॥३१ ॥३२ ||३३ ॥३४ की यात्रा करनी चाहिये । मतंग में पुनः गदाधर का दर्शन कर नारायण का स्मरण करना चाहिये । वहीं पर विधिपूर्वक श्राद्ध करके कोटि कुलों का उद्धार किया जाता है | २३-२४ | यदि कालक्रमानुसार पुत्र गया की याया करता है तो उसे उन्ही ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये जिनके विषय में पहिले ही से विचार किया गया हो । श्राद्ध के अवसर पर नियुक्त किये जाने के लिये जिन ब्राह्मणों के विषय में विचार किया जाता है, उन्हें मनुष्य रूप में नही जानना चाहिये | उनके सन्तुष्ट होने पर पितरों के साथ देवगण भी सन्तुष्ट हो जाते है | २५-२६ । हे राजेन्द्र ! श्राद्ध में नियुक्त होनेवाले उन ब्राह्मणों के कुल शील, विद्या अथवा तपस्या का विचार नहीं करना चाहिये उनके सुपूजित होने पर मनुष्य मुक्ति प्राप्त करता है |२७| अपनी सामर्थ्य एवं वलावल का विचार कर श्राद्ध का अनुष्ठान करना चाहिये । जो ऐसा करता है, वह अपने समस्त मनोरथों को प्राप्त करता है और मोक्ष के साधनों को हस्तगत करता है। हे राजन् । गयाकूप में अपने वर्ण के जाति के, मित्र, परिवार वर्ग एवं सुहृद्, जो भी हो सब के लिए विधिपूर्वक पिण्डदान करना चाहिये । इनको पिण्डदान करनेवाले सभी लोग स्वर्ग जाते है—ऐसा हमने सुना है। जिन लोगों के नाम अथवा गोत्र ज्ञात नहीं हैं, उनका मन्त्र इस प्रकार है | २८-३०० " हमारे पिता के वंश में समुत्पन्न, हमारी माता के वंश में, हमारे गुरु, श्वसुर सब उनके भाई विरादरी तथा अन्यान्य जो वान्धववर्ग हों, मेरे कुल में जिनकी पिंड प्राप्त करने की आशा नष्ट हो गई हो, जो पुत्र स्त्री आदि से निर्वाजित थे, हमारे कुल में जो ज्ञात अथवा अज्ञात रूप मे उत्पन्न हुए थे, विरूप थे, रुग्ण थे, जिनको सक्रियाएँ लुप्त हो गई थी, अर्थात् दुराचारी थे, अथवा गर्भावस्था में ही जिनका विनाश हो गया हो, उम सबों के उद्देश से दिया गया यह पिण्ड अक्षय तृप्ति प्रदान करे" |३१-३३१ हे परम बुद्धिमान् ! गया क्षेत्र में (?) तिल के बिना अपना (?) पिण्डदान करना चाहिये । अन्याभ्य अपने