पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७४३

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वायुपुराणम् ७२२ चत्वार आश्रमाः पूज्याः श्राद्धे दैवे तथैव च | चतुराश्रमबाह्येभ्यः श्राद्धं नैव प्रदापयेत् स तिष्ठेद्वा बुभुक्षुस्तु चतुराश्रमवाह्यतः । अयतिर्मोक्षवादी च उभो तो पङ्क्तिदूषको वृथामुण्डाश्च जटिलाः सर्वे कार्पटिकास्तथा । निघृणान्भिन्नवृत्तांश्च सर्वभक्षान्विवर्जयेत् कारुकादीननाचारान्सर्ववेदवहिष्कृतान् । गायनान्देववृत्तांच हव्यकव्येषु वर्जयेत्

  • द्विजेष्वपि कृतं नित्यं श्राद्धकर्माणि वर्जयेत् । एतेषु वर्तते यश्च कृष्णवर्णं स गच्छति ॥

योऽश्नाति सह शूद्रेण सर्वे ते पङ्क्तिदूषकाः ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ ॥६६ ॥७० व्यापादनं शक्तिनिवर्हणं कृषिर्वाणिज्यकार्यं पशुपालनं च | शुश्रूषणं वाऽप्यगुरोरहो वा कार्य नैतद्विद्यते ब्रह्मणस्य तु विप्राः स्थिता नित्यं ज्ञानिनो ध्यानिनस्तथा । मिथ्यासंफल्पिन: सर्वे दुर्वृ त्ता वा द्विजातयः ||७१ मिथ्यातत्त्वविदो वर्ज्यास्तथा दाम्भिकसूचकाः । उपपातकसंयुक्ताः पातकैश्च विशेषतः ॥७२ के श्राद्ध कार्य में तथा देवकार्यों में केवल चार आश्रमों की पूजा होती है । इन चारी आश्रमों से बहिर्भूत जो हों, उन्हें श्राद्धादि में कुछ भी नहीं देना चाहिये | ६५| जो इन चारों आश्रमो से बहिष्कृत हो, वह भले भूख से मरे, किन्तु श्राद्धादि कर्मों से बाहर हो रहे । जो यति नहीं है, और जो केवल मोक्ष की चर्चा करता है, वे दोनों पंक्ति- दूषक है | ६६ | व्यर्थ मे लोगों को भ्रम में डालने के लिये जटा रखाने वाले, भाँति भांति के चिथड़े-गुदड़ी आदि लपेट कर साधुता प्रदर्शित करने वाले, निर्मम, भिन्न-भिन्न आचार विचारवाले, तथा सर्वभक्षी (भक्ष्या- भक्ष्य में कोई विवेक न रखनेवाले) — इन सब को श्राद्धादि में वर्जित रखना चाहिये |६७ | शिल्पकर्म (कारोगरी ) आदि नीच वृत्ति द्वारा जोविका निर्वासित करनेवाले, अनाचारी (आचार विहीन) सभी वेदो से बहिष्कृत, गायम वादन श्रादि द्वारा जीविका चलानेवाले, देवताओं के चरित्र का अनुकरण ( रामलीला आदि मे राम लक्ष्मण आदि का अभिनय) करनेवाले ब्राह्मणों को हवन एवं श्राद्ध आदि में विवर्जित रखना चाहिये । द्विजों में भी नित्य श्राद्ध आदि में भोजन करने वाले को भी — श्राद्ध में वर्जित रखना चाहिये । जो नित्य श्राद्धादि में भोजन कर के ही जीविका चलाता है वह श्यामल वर्ण का हो जाता है; इसी प्रकार जो शूद्र के साथ भोजन करता है वह नीच है—ये ऊपर कहे गये ब्राह्मण पंक्तिद्रूपक हैं |६८-६६| जीवहिंसा, बलवान् होकर केवल जीव मारने आदि में अपनी शक्ति का दुरुपयोग करना, कृषिकर्म, वाणिज्य, पशुपालन, विना गुरु के किसी अन्य की शुश्रूषा आदि करना - ये सब कार्य ब्राह्मण के लिये नही हैं |७०१ जो नित्य ज्ञान एवं ध्यान में रहकर अपने जीवन विताते है वे ही ब्राह्मण है । इनके विपरीत जो मिथ्या संकल्प करनेवाले, दुर्व्यवहार करनेवाले, मिथ्या तत्त्वो के जाननेवाले, दम्भी, चुगुलखोर, छोटेमोटे पापकर्मो में लगे रहनेवाले अथवा महान् पातको ब्राह्मण है, वे श्राद्धादि

  • इदमधं नास्ति ख. ध पुस्तकेषु ।