पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७४२

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नवसप्ततितमोऽध्यायः यायावरच पञ्चैते विज्ञेयाः पङ्क्तिपावनाः | अष्टादशानां विद्यानामेक: स्यात्पारगोऽपि यः यथावद्वर्तमानश्च सर्वे ते पङ्क्तिपावनाः | त्रिनाचिकेतस्त्रैविद्यो यश्च धर्मान्पठेद्विजः बार्हस्पत्ये तथा शास्त्रे पारं यश्च द्विजो गतः । सर्वे ते पावना विप्राः पङ्क्तीनां समुदाहृताः आमन्त्रितस्तु यः श्राद्धे योषितं सेवते द्विजः । पितरस्तस्य तं मासं तस्य रेतसि शेरते श्राद्धं दत्त्वा च भुक्त्वा च मैथुनं यो निषेवते । पितरस्तस्य तं मासं रेतःस्था नात्र संशयः तस्मादतिथये देयं भोजयेद्ब्रह्मचारिणम् | ध्याननिष्ठाय दातव्यं सानुक्रोशाय धार्मिकम् यति वा वालखिल्यान्वा भोजयेच्छ्राद्धकर्मणि | वानप्रस्तोपकुर्वाणः पूजामात्रेण तोपितः गृहस्थं भोजयेद्यस्तु विश्वेदेवास्तु पूजिताः । वानप्रस्थेन ऋषयो बालखिल्यैः पुरंदरः यतीनां पूजने चापि साक्षाद्ब्रह्मा तु पूजितः । आश्रमाः पावनाः पश्व उपधाभिरनाश्रमाः ७२१ ॥५६ १५७ ॥५८ ॥५६ ॥६० ॥६१ ॥६२ ॥६३ ॥६४ - स्थान पर निवास न करने वाले इन पाँच प्रकार के ब्राह्मणों को पंक्ति पावन समझना चाहिये । अठारहो विद्याओं में से, जो एक में भी पारङ्गत हो, वह भी पंक्तिपावन हे १५५ ५६ इसके उपरान्त ये राब भी पंक्तिपावन है, जैसे त्रिनाचिकेत (नचिकेता की तीनों विद्याओ के अध्यन करनेवाले) तीनों विद्याओं के जाननेवाले धर्म शास्त्र के अध्ययन करनेवाले द्विज भी पंक्तिपाचन कहे गये है | ५७१ इसके अतिरिक्त वृहस्पति के शास्त्र में जो पारंगत विद्वान् हैं, वे भी पंक्तिपावन हैं - इस प्रकार ये उपर्युक्त ब्राह्मण पंक्तिपावन कहे गये है १५८ जो ब्राह्मण किसी के श्राद्धकर्म में आमंत्रित होकर स्त्री के साथ समागम करता है, उसके पितरगण उसी मास को खाते है, और उनके वीर्य पर शयन करते हैं | ५६ श्राद्ध देकर तथा श्राद्ध मे भोजन कर जो ब्राह्मण मैथुन कर्म करते हैं, उसके पितरगण उसी मांस को खाते हैं, और उसी वीर्य पर अवस्थित होते है इसमें सन्देह नही |६०| इसीलिये श्राद्धकर्ता को चाहिये कि श्राद्धादि में दान अतिथि को दे, भोजन ब्रह्मचारी ब्राह्मण को कराये, इसके अतिरिक्त जो ध्यान परायण ( योगाभ्यासी) तथा दयालु हो उसे धर्म की मर्यादा रक्षा के लिये दान करे |६१ | श्राद्धकर्म में वीतराग संन्यासियों को अथवा वालखिल्यों (जो नये अन्न के प्राप्त कर लेने पर पूर्व सचित का त्याग कर देते है, अर्थात् जिन्हे जिविका आदि के लिये कोई चिन्ता नही रहती ) को खिलाना चाहिये । वानप्रस्थ में रहनेवाला केवल पूजा मात्र से सन्तुष्ट और उपकृत होता है | ६२ | जो श्राद्धकर्म में किसी गृहस्व आश्रम में रहनेवाले ब्राह्मण को भोजन कराता है, उसने मानो विश्वेदेवों की पूजा की है। इसी प्रकार वानप्रस्थ में रहनेवाले के सन्तुष्ट होने पर ऋषियों को सन्तुष्ट समझना चाहिये । बालखिल्यों के सन्तुष्ट होने पर इन्द्र को सन्तुष्ट समझना चाहिये |६३ | यतियों के पूजित होने पर तो मानो साक्षात् भगवान् ब्रह्मा पूजित होते है | अपनी अपनी उपाधियों से पाँच आश्रम पवित्र माने गये हैं, इनके अतिरिक्त कोई अन्य आश्रम नहीं है |६४१ पितरों फा० ६१